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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

नवपद - आराधना, श्रीपाल-मयणा सुंदरी , कर्म सिद्धान्त कथा, Navpad mahima, shripal katha

जैन जगत में नवपद की महिमा अपरंपार है 
जिनशास्त्रों के अनुसार करीबन इग्यारह लाख वर्ष पूर्व, अनंत उपकारी प्रभु मुनिसुव्रत स्वामीजी के समय में यह तप-उपासना की गई थी

जिनशासन की परम् उपासक, जिनभाषित कर्म के सिद्धांत पर अटूट् श्रधा रखने वाली सुश्राविका मयणासुंदरी ने अपने सुश्रावक पतिदेव महाराजा श्रीपाल के कोढ़ रोग निवारण हेतु... उज्जैन नगरी में सिद्धचक्रजी की आराधना करके उस भयंकर रोग से मुक्ति दिलायी थी l

  इस तप की महिमा का उल्लेख करीबन् 2600 वर्ष पहले वर्तमान जिनशासक देव श्रीमहावीरस्वामीजी ने... अनंतलब्धिनिधाय गौतमस्वामीजी और श्रेणिक महाराजा को अपनी देशना में कही थी l.

उज्जैन नगर में महाप्रतापी प्रजापाल नामक राजा राज्य कर रहे थे, उनके दोनो रानियों से एक एक पुत्री थी, पहली रानी सोभाग्यसुंदरी की पुत्री का नाम सुरसुन्दरी जो स्वभाव् से मिथ्यात्व को मानने वाली थी, दुसरी रूपसुंदरी की पुत्री का नाम मयणासुंदरी.जो सम्यक्त्व को धारण किये हुए थीl

मयणा के पिता - एक दिन राज्यसभा में अपनी पुत्रियों की बुद्धिमता की परीक्षा लेते हुए कर्म के सवाल पर राजा ने पुछा ,क्या पिता के कर्म से प्राप्त एश्वर्य से आपको सभी खुशियाँ मिल सकती है..?

प्रश्नोत्तर में सुरसुंदरी ने कहा... मुझे मेरे महान् राजा पिता की कृपा से सब कुछ मिल जायगा l

प्रश्नोंत्तर में मयणासुंदरी ने कहा... सभी जीवात्मा अपने पूर्व एवं वर्तमान कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख प्राप्त करते है, उसमे न कोई कम कर सकता है न ही बढ़ा सकता है l

मयणा के पिता - यह सुनकर अभिमान से चूर राजा अति क्रोधित होते हुए कहा... मयणा.. तुझे ये हीरे से जड़े रेशमी वस्त्र, स्वादिस्ट भोजन, रत्न के झुले, दास-दासियाँ सभी कुछ मेरी मेहरबानी की वजह से मिल रहे है l

मयणा.. पिताश्री आप क्रोधित न होवें, मैंने मेरे पुर्वजन्म के कृत कर्मों के कारण ही आपके यहाँ जन्म लिया है

 पूर्व भवोंभव में किये पुण्यमयी कार्य, जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा, राजा, रंक या त्रियंच जो भी जीवन मिला... उसे न्यायोच्चित्त जिनवाणी के अनुसार जीने वालो को अवश्य ही उपकारी प्रभु का मार्गदर्शन मिलता है l

 श्रीपालकुमार राजा के घर जन्म लेकर भी कोढ़ रोग से ग्रस्त क्यों...?

श्रीपाल राजा पुर्व भव में हीरण्यपुर नगर के श्रीकांत राजा थे, जिन्हें शिकार का व्यसन था ! उनकी रानी श्रेष्ठ गुणवाली श्रीमती... जिनकी जैनधर्म पर अटूट श्रद्धा थी, वह हमेशा राजा को एकांत में समझाया करती थी...प्राणेश ! किसी भी जीव की हिंसा से जन्मोंजन्म तक भयंकर परिणाम भुगतने पड़ते है, इस घर्णास्पद कृत्य से मैं और पृथ्वी दोनों लज्जित हो रहे है, आदि ! लेकिन गलत मार्ग के व्यसनी इतनी जल्दी कहाँ समझने वाले थे?

एक दिन सात सौ लोगो की टोली के साथ राजा श्रीकांत शिकार के लिए भयंकर जंगल में गये, वहाँ काउसग्ग ध्यान में खड़े एक मुनिराज को देखकर सभी व्यंग के साथ कहने लगे,यह तो किसी रोग से ग्रसित कोढ़िया है, इसे मारो मारो ! राजा के मुख से निकलते ही सभी ने मिलकर मुनिराज को मारते मारते लोहलुहान कर दिया l इस दृष्य को देख राजा श्रीकांत आनंदरस में डूब गये l

मुनिवर ने तो समता भाव में लीन होकर आत्मकल्याण किया, उधर धर्मानुरागी श्रीमती के बारबार अनंत बार समझाते रहने से अंतत: श्रीकांत को पूर्व पुण्य के उदय से अपने कुकृत कार्यो का एहसास हुआ, और अपने महापाप का प्रायश्चित करते करते संयम-दीक्षा धारण की l

जिनशासन के नव पदों की आराधना करते हुए श्रीकांत के जीव ने मृत्यु के उपरांत श्रीपाल राजा के भव में जन्म लिया, पूर्वो पूर्व पुण्य एवं कठोर पश्याताप से राजा के यहाँ उम्बर नाम से जन्म मिला, मगर जन्म के साथ ही कोढ़ रोग से ग्रसित थे l

राजा श्रीकांत के पूर्व भव के सात सौ सैनिक भी कोढ़ रोग से ग्रसित होकर मानव जन्म में आये, जब श्रीपाल कुमार बड़े हुए, तब संयोग से एक दिन वह कोढियों की टोली घुमती फिरती उस गाँव में आयी और श्रीपालकुमार को अपने साथ ले जाकर टोली का प्रमुख (उम्बरराणा नाम से) बना लिया l

उधर प्रजापाल राजा ने पुत्री सुरसुन्दरी ( पिता-कर्मी ) को इच्छित वरदान दिया, एवं शंखपुरी के अधिपति रूप के राजा अरिदमन के साथ उसका विवाह राजशाही ठाठ-बाट से किया, दहेज में अनन्य धन-दौलत दास-दासियाँ दी l

घमंडी पिता प्रजापाल ने मयणा को धिक्कारते हुए कहाँ... तूने मेरा अपमान किया है, तू वास्तव में मुर्ख शिरोमणि है, इस राजसभा के समक्ष मेरे मान-सम्मान को भयंकर ठेस पहुंचायी है, इसका दंड तुझे अवश्य मिलेगा l

अगले दिन प्रजापाल शिकार पर निकले, वहाँ एक झुंड को आते देखा, पता लगाने पर मालुम हुआ.. यह सातसौ कोढियों का झुंड है l

राजा का विरोधी मन अहंकार से ज्वलित हो उठा और पुत्री मयणा का विवाह कोढियों के राजा उम्बरराणा के साथ करने का निश्चय कर लिया ! सोचने लगे.. मयणा कर्म-कर्म करती है, वह कर्म का प्रत्यक्ष फल प्राप्त करें, वे कटुवचन मेरे मन मष्तिस्क में अभी भी खटक रहे है l

उम्बरराणा की बरात राजमहल की और बढ़ रही है, राणा खच्चर पर सवार है, कोतहुल का माहोल है... सभी रोग से क्षीण है, कोई लुला-लंगड़ा है, कईओं के शरीर पर घाव है, खून टपक रहा है, मक्खियाँ भिनभीना रही है, उनको देखकर लग रहा था.. नरक से भी बदत्तर जिन्दगी जी रहे है l

राजसभा में प्रजापाल ने आदेश स्वरूप कहा... मयणा ! तेरे कर्मो द्वारा प्रदान यह तेरा पति आया है, इसके साथ शादी कर सभी प्रकार के सुखों को तू भोग l

कर्म आधारित भाग्य पर भरोसा करने वाली मयणासुंदरी ने क्षणभर भी विलंब किये बिना दर्द से कहराते हुए कोढ़ीये के गले में वरमाला अर्पित कर उसे पति के रूप में स्वीकार कर लिया । उम्बरराणा लडखडाती आवाज में मयणा से कहते है ,खुब गहराई से सोच ले, कंचनवर्णी तेरी काया मेरे संग से नष्ट हो जायगी, तुम देवांगना जैसी मुझे पति मानना  उचित नही है l

ऐसे वचन सुनकर मयणा को अपार दुःख हुआ, आँखों से टपटप आँसू टपकने लगे, पति के चरणों में गिरकर बोली , हे प्राणेश्वर..! आप यह क्या बोल रहे है, जैसे सूर्य पश्चिम दिशा में नही उगता, ठीक वैसे ही सती स्त्रियाँ अपने पतिधर्म से कभी नही डगमगाती l

 पूर्व भवोंभव में किये पुण्यमयी कार्य, जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा, राजा, रंक या त्रियंच जो भी जीवन मिला हैं उसे न्यायोच्चित्त जिनवाणी के अनुसार जीने वालो को अवश्य ही उपकारी प्रभु का मार्गदर्शन मिलता है l याद रहे हमारा वर्तमान भी अगले जन्मों का पूर्व भव होगा - तुरन्त जागों ओर आगे बढ़ों l

मयणासुन्दरी - प्रातः काल होने पर मयणा ने अपने पति से कहा, हे प्राणनाथ चलो अपने भगवान आदिनाथ के मंदिर जाकर युगादिदेव के दर्शन करें, ऋषभदेव प्रभु के दर्शन करने से दुःख एवं क्लेश का नाश होता है, एकाग्रचित भक्ति भाव से दोनो ने प्रभु दर्शन, चैत्यवंदन, कार्योत्सर्ग आदि करके मयणा प्रभु से प्रार्थना करने लगी , हे प्रभु ! आप जगत में चिंतामणी रत्न के समान है, मोक्ष प्रदान करने वाले है ! शरण में आये इस सेवक के भी आप ही आधार है, हमारे दुःख - दुर्भाग्य को दूर कीजिये l

जिनेश्वर का वंदन-पूजन करके मयणा ने पतिदेव से कहा , प्राणनाथ, पास में ही पोषधशाला में गुरुभगवंत विराजमान है, एवं वे देशना दे रहे है.. हम भी धर्म देशना का श्रवण करें ! देशना के उपरांत मयणा ने गुरुदेव को विनंती करते हुए कहा, गुरुदेव ! आगम शास्त्रों में देखकर ऐसा कोई उपाय बताइये कि आपके इस श्रावक के देह का कोढ़ रोग नष्ट हो जाय ।

  तब आचार्य भगवंत बोले : यंत्र-तंत्र-जड़ी-बुटी-मणिमंत्र-ओषधि आदि उपचार बताना जैन साधुओं का आचार नही है, गुरुदेव ने आगम को देखकर मयणा को कहा.. श्री सिद्धचक्रजी के पट्ट की स्थापना कर नवपद की आराधना-ध्यान-पूजन करें ! यह तप आसोज शुक्ला सप्तमी को आरंभ कर नौ आयम्बिल करें, इसी तरह चैत्र शुक्ला सप्तमी से भी ।
 कुल साढ़े चार वर्ष तक अर्थात 9 ओलीजी की आराधना कपट-माया-दम्भ रहित शुद्ध भक्तिभाव से करें l

नवपद आराधना :  इस तप की विशुद्ध आराधना से रोग-दुःख-दुर्भाग्य सभी शांत हो जाते है ! पूजन के पश्चात्त पक्षाल को लगाने से अठारह प्रकार के कोढ़ रोगो का नाश होता है, गुमड़े एवं घाव भी अच्छे हो जाते है, विविध प्रकार की पीड़ा, वेदना सभी दुर हो जाते है । मन-वचन-काया को संयम में रखकर, शुद्ध उच्चारण से, नवपद को समर्पित भाव से धर्मध्यान-आराधना करें, उसकी सभी प्रकार की वेदनाएं दूर होकर इस भव और परभव में भी मनवांछित सिद्धियाँ हासिल होगी l

जिनगुरु मुनिचन्द्रसुरिश्वरजी ने मयणा को श्री सिद्धचक्रजी का यंत्र बनाकर दिया, एवं सम्पूर्ण विधि समझाकर शुभ आशीष स्वरूप् वाक्षेप प्रदान किया l वहां उपस्थित श्रावक-श्राविकाओ ने मयणा - उम्बरराणा को अपने घर लेजा कर स्वामीभक्ति की, साधर्मिक भक्ति करने से सम्यक्त्व निर्मल होता है । दोनों ने वही रहकर गुरुदेव की निश्रा में नवपदजी का पूजन, आयम्बिल तप, क्रिया सभी गुरु आज्ञानुसार विधिवत नौ दिनों तक पूर्ण किया l

आयम्बिल के प्रथम दिन से सकारात्मक परिणाम, नवमें 
दिन की आराधना पूर्ण होते होते.. उम्बरराणा के सभी तरह के रोग नष्ट होकर.. राणा एक तेजश्वी,  कांतिमय, राजकुमार श्रीपाल का रूप फिर से धारण कर लिया l

यह उनके द्वारा पूर्वभव में की गलतियों का उसी भव में आत्मिक  पश्चाताप और यहाँ शुद्ध भाव से जिनशासन के नौरत्नों की आराधना का ही नतीजा था l
 पुज्य जिनगुरुदेव की धर्म सभा.. एक धव्नि से जिनशासन महिमा, जैनम् जयति शासनम् और गुरुदेव के उपदेशों की जय-जयकार से गुंज उठी l

गुरुदेव और माँ का आशीर्वाद - श्रीपाल मयणासुंदरी दोनों तेजश्वी रूप और गुरूदेव का आशीर्वाद लेकर अपने घर पहुंचे, दोनों ने माँ के चरण-स्पर्श किये, माँ ने दोनों को गले लगाते हुए करुणामयी आशीर्वाद दिया, जिनवाणी के मार्गदर्शन को शाश्वत बताते हुए.. तह दिल से बहू का आभार व्यक्त किया, बहू ने भी ख़ुशी के आंसुओं के साथ माताजी के दुबारा चरण स्पर्श किये l

कल्याणमित्रों का भी उद्धार -  भवोंभव से जिनशासन की आराधना में रहे इस जोड़े ने अपने 700 कोढि साथियों को भी नवपद आराधना विधिवत करवाकर उनका भी रोग दूर कर निरोगी बना दिया यह है. कल्याण मित्र का फर्ज और मित्रता का फल l

अशुभकर्म से बहन रूपसुन्दरी बनी नृत्यांगना -वर्षो उपरांत एक दिन राजा प्रजापाल (मयणा के पिता) ने महाकाल राजा के स्वागत में कार्यक्रम रखा, उसमे श्रीपालराजा, मयणा को भी बुलाया गया, कार्यक्रम में नृत्य रखा गया और नृत्यांगनायें भी बुलाई गयी... नृत्य की शुरुआत हुई अशुभ कर्म करने और उनके उदय से उस नृत्यागनां की पहचान  मयणा की बहन रुपसुन्दरी के रूप में हुई, जब सभी को पता चला तब सूर सुन्दरी बहन मयणा के पैरो में गिरकर बहुत रोई, एवं अपनी पूरी व्यथा बताई, किस तरह वह बिककर वैश्यालय पहुँच गयी, अकथनीय कष्टों को भुगता, मयणा उसे  सांत्वना देकर घर लेकर गयी, सुरसुन्दरी भी पश्याताप करते हुए स्वकर्म को स्वीकार कर जिन आराधना में लग गयी l

राजा प्रजापाल को भी अपनी गलती का अहसास हुआ - उसने मयणा से कहा.. मैंने तुझे दुःखी करना चाहा.. तू सुखी बनी और सुरसुन्दरी को सुखी करना चाहा.. वह दुखी बनी l 

 प्रजापाल ने नतमस्तक होते हुए, भूल को स्वीकार कर माना कि में सर्वथा गलत था, यह असत्य है कि में किसी को सुखी या दुःखी कर सकता हूँ। वास्तव में कर्म सत्ताधीश है, राजा महाराजा प्रजा सभी कर्माधिन है.. यह सत्य मैंने प्रत्यक्ष देखा है l

श्रीपाल का महाराजा के रूप में राज्यभिषेक हुआ - उधर प्रजापाल राजा ने भी मालव देश के राज सिंहासन पर श्रीपाल का राज्य अभिषेक किया और स्वयं वैराग्य ग्रहण कर आत्म साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गये l श्रीपाल राजा ने सुरसुन्दरी के पति अरिदमन को बुलाकर हाथी, घोड़े, जवेरात आदि के साथ शंखपुर का राज्य भी देकर विदा किया l उस समय के करीब 700 राजाओं ने प्रणाम कर श्रीपाल की आज्ञा को स्वीकारा l

 चारों ओर जिनधर्म जिनवाणी की जय जयकार होने लगी

 

जगत कृपालु महावीर परमात्मा ने गणधर गौतमस्वामीजी एवं श्रेणिक राजा की उपस्थिति में हुई देशना के अंतर्गत नवपद आराधना का सविस्तार वर्णन किया साथ ही श्रीपाल मयणा की नवपद आराधना का उल्लेख भी किया था l

यह चरित्र 15 वीं शताब्दी में श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी ने प्राकृत भाषा में पद्यमय निबद्ध किया,18 वीं शताब्दी में उपाध्याय श्री विनय विजयजी एवं यशो विजयजी म. ने श्रीपाल चरित्र रास का लेखन किया..  वर्तमान में इसी रास के आधार से ओलीजी के व्याख्यान हो रहे है। 

जगत उपकारी भगवन्त महावीर देशना...
उपकारी अरिहंत प्रभु, सिद्ध भजो भगवंत !
आचारज उव्झाय तिम, साधु सकल गुणवंत !!

अर्थ - अनंत उपकारी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवंतों की उपासना करों l

दरिसण दुर्लभ ज्ञान गुण, चारित्र तप सुविचार !
सिद्धचक्र ए सेवंता पामिजे भवपार 
अत्यंत दुर्लभ सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप का शुद्ध भावपूर्वक भजने से जीव भवसागर को पार कर लेता है।