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मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

जंबुद्वीप में 34 तीर्थंकर घातकी खंड में 68 तीर्थंकर अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 तीर्थंकर

जंबुद्वीप में उत्कृष्ट 34 तीर्थंकर होते है।  

                  तीर्थंकर कर्मभूमि में ही जन्म लेते है। जिनके अलग अलग विभागों को विजय कहते है। ऐसे एक विजय में एक काल में एक ही तीर्थंकर होते है। 

                  जंबुद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में 32 विजय है। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में 1 - 1 विजय है। ऐसे सभी मिलकर 34 विजय है। जंबुद्वीप से घातकी खंड क्षेत्र में दो गुना होने से वहाँ 68 विजय है। अर्धपुष्करावर्त खंड घातकी खंड जितना होने से वहाँ भी 68 विजय है। 

                    ऐसे जंबुद्वीप में 34 , घातकी खंड में 68 और अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 विजय है। जिस काल में सभी क्षेत्र में तीर्थंकर विद्यमान होते है , वो काल में उनकी उत्कृष्ट संख्या 170 होती है। श्री अजितनाथ भगवान के शासन में उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर विचरते थे।  

उत्कृष्ट तीर्थंकर

जंबुद्वीप में 34 तीर्थंकर 
घातकी खंड में 68 तीर्थंकर
अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 तीर्थंकर

Ayodhya ki katha

ऋषभकुमार का राज्याभिषेक – एक दिन सभी युगलिए एकत्रित होकर हाथ ऊँचे करके नाभिकुलकर से पुकार करने लगे- “अन्याय हुआ, अन्याय हुआ।“ अब तो अकार्य करने वाले लोग हकार, मकार और धिक्कार नाम की सुंदर नीतियों की भी नहीं मानते।“ यह सुनकर नाभिकुलकर ने युगलियों है कहा- “इस अकार्य से तुंम्हारी रक्षा ऋषभ करेगा। अत: अब उसकी आज्ञानुसार चलो।“ उस समय नाभिकुलकर की आज्ञा से राज्य की स्थिति प्रशस्त करने हेतु तीन ज्ञानधारी प्रभु ने उन्हें शिक्षा दी कि “मर्यादाभंग करने वाले अपराधी को अगर कोई रोक सकता है, तो राजा ही। अत: उसे ऊँचे आसन पर बिठाकर उसका जल से अभिषेक करना चाहिए।“ प्रभु की बात सुनकर उनके कहने के अनुसार सभी युगलिए पत्तों के दोनें बनाकर उसमें जल लेने के लिए जलाशय में गये। उस समय इंद्र का आसन चलायमान हुआ। उससे अवधिज्ञान से जाना कि भगवान के राज्याभिषेक का समय हो गया है। अत: इंद्रमहाराज वहां आये। उसने प्रभु को रत्नजटित सिंहासन पर बिठाकर राज्याभिषेक किया। मुकुट आदि आभूषणों से उन्हें सुसज्जित किया। इधर हाथ जोड़कर और कमलपत्र के दोनों में अपने मन के समान स्वच्छ जल लेकर युगलिए भी पहुंचे। उस समय अभिषित्त एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित मुकुट सिर पर धारण किये हुए सिंहासनासीन प्रभु ऐसे प्रतीत हो रहे थे। मानो उदयाचल पर्वत पर सूर्यं विराजमान हो। शुभ्र वस्त्रों से वे आकाश में शरदऋतु के मेघ के से सुशोभित हो रहे थे। प्रभु के दोनों और शरद्ऋतु के नवनीत एवं हंस के समानं मनोहर उज्जल चामर ढुल रहे थे।
विनीता नगरी का निर्माण- अभिषेक किये हुए प्रभु को देखकर युगलिये आश्चर्य में पड़ गये। उन विनीत युगलियों ने यह सोचकर कि ऐसे अलंकृत भगवान् के मस्तक पर जल डालना योग्य नहीं है अत: प्रभु के चरणकमलों पर जल डाल दिया। यह देखकर इंद्रमहाराज ने खुश होकर नौ योजन चौडी बारह योजन लंबी विनीता नगरी बनाने की कुबेरदेव को आज्ञा दी। इंद्र वहाँ है अपने स्थान पर लोट आये। उधर कुबेर ने भी माणिक्य- मुकुट के समान रत्नमय और धरती पर अजेय विनीता नगरी बसायी, जो बाद में अयोध्या नाम है प्रसिद्ध हुई।

Bhagvan mahaveer story

साहस परीक्षा
जब महावीर कुछ कम आठ वर्ष के थे, अपने समवयस्क राजपुत्रों के साथ
क्रीड़ा करते हुए उद्यान में ग़ए और संकुली नामक खेल खेलने लगे। उधर शकेन्द्र
ने देव सभा में कहा कि अभी भरत क्षेत्र में बालक वर्द्धमान ऐसे धीर, वीर और
साहसी हैं कि कोई देव-दानव भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र की बात
का और तो सभी देवों ने आदर किया, परन्तु एक देव ने विश्वास नहीं किया। वह
परीक्षा करने के लिए चला और उद्यान में जा पहुँचा। उस समय बालकों में वृक्ष को
स्पर्श करने की होड़ लगी हुई थी। देव ने भयानक सर्प का रूप बनाया और उस
वृक्ष के तने पर लिपट गया। फिर फन फैलाकर फुफ्कार करने लगा। एक भयानक
विषधर को आक्रमण करने में तत्पर देखकर, डर के मारे अन्य सभी बालक भाग
गए। महावीर तो जन्मजात निर्भय थे। उन्होंने साथियों को धैर्य बँधाया और स्वयं
सर्प के निकट जाकर और रस्सी के समान पकड़कर दूर ले जाकर छोड़ दिया।

अब वृक्ष पर चढ़ने की स्पर्धा प्रारम्भ हुई। शर्त यह थी कि विजयी राजपुत्र,
पराजित की पीठ पर सवार होकर, निर्धारित स्थान पर पहुँचे । वह देव भी एक
राजपुत्र का रूप धारण कर उस खेल में सम्मिलित हो गया। महावीर सबसे पहले
वृक्ष के अग्रभाग पर पहुँच गए और अन्य राजकुमार बीच में ही रह गए। देव को तो
पराजित होना ही था, वह सब से नीचे रहा। विजयी महावीर उन पराजित कुमारों
की पीठ पर सवार हुए। अन्त में देव की बारी आई। वह देव हाथ-पाँव भूमि पर
टिका कर घोड़े जैसे हो गया। महावीर उसकी पीठ पर चढ़ कर बैठ गए। देव ने
अपना रूप बढ़ाया। वह बढ़ता ही गया, एक महान पर्वत से भी अधिक ऊँचा उसके
सभी अंग बढ़कर विकराल बन गए । मुँह पाताल जैसा एक महान खड्डा,तक्षक नाग जैसी लपलपाती हुई जिह्वा, मस्तक के बाल पीले और खीले जैसे खड़े हुए, उसकी दाड़े करवत के दाँतों के समान तेज, आँखें अंगारों से भरी हुई
सिगड़ी के समान जाज्वल्यमान और नासिका के छेद पर्वत की गुफा के समान
दिखाई देने लगे। उसकी भृकुटी सर्पिणी के समान थी । वह भयानक रूपधारी देव
बढ़ता ही गया।
उसकी अप्रत्याशित विकरालता देखकर महावीर ने ज्ञानोपयोग लगाया। वे
समझ गए कि यह मनुष्य नहीं, देव है और मेरी परीक्षा के लिए ही मानवपुत्र बनकर
मेरा वाहन बना है। उन्होंने उसकी पीठ पर मुष्टि प्रहार किया, जिससे देव का बढ़ा
हुआ रूप तत्काल वामन जैसा छोटा हो गया। देव को इन्द्र की बात का विश्वास हो
गया। उसने महावीर से क्षमा याचना की और नमस्कार करके चला गया।

भगवान महावीर की विनयशीलता

भगवान महावीर की विनयशीलता

भगवान महावीर जब आठ वर्ष के हो गए, तब उनके माता-पिता ने कलाचार्य
के पास उन्हें पढ़ने के लिए भेजा।
भगवान महावीर की बुद्धि बहुत ही तीव्र थी। विद्याचार्य जी जिस समय भगवान
को पढ़ा रहे थे, उस समय इन्द्र पंडित के रूप में आकर विद्याचार्य से गहन और
तात्विक प्रश्न पूछने लगा। इन्द्र के प्रश्न सुनकर विद्याचार्य अवाक् हो गए। आचार्य
के भावों को जानकर भगवान् ने बड़ी नम्रतापूर्वक अनुमति मांगी कि क्या इन प्रश्नों
का उत्तर मैं दे देँ?
|
शिक्षक की अनुमति प्राप्त कर भगवान महावीर ने इन्द्र के प्रश्नों का उत्तर
सुन्दरता एवं शीघ्रता से दिया, जिसे सुनकर विद्याचार्य जी चकित रह गए ।
तब पंडित रूपधारी शकेन्द्र द्वारा भगवान् के भावी तीर्थंकर होने तथा जन्म
से ही अवधिज्ञानी होने का बोध कराया गया । तब विद्याचार्यजी ने बड़े ही
सम्मानपूर्वक राजकुमार वर्द्धमान को माता-पिता के पास पहुंचा कर कहा कि
आपका बालक तो स्वयं बुद्धिमान है, इसे पढ़ाने की योग्यता मुझ में नहीं है ।
इतने बुद्धिशाली भगवान महावीर ने भी इन्द्र के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए
विद्याचार्यजी से भी आज्ञा मांगी। भगवान् महावीर कितने विनयशील थे।

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

Shravak ke 14 niyam jain

श्रावक के १४ नियम जो हमें रोज़ लेने चाहिये .....
१. सचित्त :- सचित्त अर्थात जिस पदार्थ में जीव राशि है ।
इसमें सचित पदार्थो के सेवन की दैनिक मर्यादा रखी जाती है।जैसे कच्ची हरी सब्जी , कच्चे फल , नमक , कच्चा पानी, कच्चा पूरा धान आदि का सम्पूर्ण त्याग अथवा इतनी संख्या से अधिक उपयोग नही करूँगा ऐसा नियम करना । ( 3, 5 ,7 आदि )

२ . द्रव्य :- खाने – पीने की वस्तु / द्रव्य की प्रतिदिन मर्यादा रखनी है , इसमें पदार्थो की संख्या का निश्चय किया जाता है ।
भिन्न भिन्न नाम व स्वाद वाली वस्तुएं इतनी संख्या से अधिक खाने के काम में नहीं लूँगा ।
जैसे खिचड़ी , रोटी, दाल, शाक, मिठाई, पापड़, चावल आदि की मर्यादा करना । (11, 15, 21 आदि )

३ . विगई :- अभक्ष्य विगई , मदिरा , मांस , शहद और मक्खन इनका सर्वथा त्याग होना ही चाहिए ।
भक्ष्य विगई : - प्रतिदिन तेल घी दूध दही शक्कर / गुड तथा घी या तेल में तली हुयी वस्तु ये छः विगई है ।
इनका यथाशक्ति त्याग करना या रोज कम से कम 1 विगई त्याग करना ।

४. उपानह :- जूता, मोजा, चप्पल, आदि पाँव में पहनने की चीजो की मर्यादा रखें । ( 3, 5 ,7 आदि )

५.तम्बोल :- मुखवास के योग्य पदार्थों , पान, सुपारी, खटाई, इलायची आदि का त्याग करना या दैनिक के लिए परिमाण रखना । ( 3, 5 ,7 आदि )

६. वत्थ :- पहनने, ओढ़ने के वस्त्रों की दैनिक मर्यादा रखना । ( 5 ,10, 15, 20 आदि )
आज में ..... संख्या में वस्त्रों को अपने शरीर पर धारण करूँगा , इससे अधिक वस्त्रों को नहीं पहनूंगा ।

७. कुसुम :- पुष्प, तेल, इत्र, अगरबत्ती आदि सुगंधित पदार्थों का दैनिक मर्यादा रखना । ( 3, 5 ,7 आदि )

८. वाहन :- रिक्शा, स्कूटर, कार, बस, ट्रेन आदि का दैनिक उपयोग या मर्यादा करें । ( 3, 5 ,7 आदि )
९. शयन :- शय्या, आसन, कुर्सी, बिछोना, पलंग आदि का प्रमाण करना ( 5 ,10, 15 आदि )

१०. विलेपन :- केसर, चन्दन, उबटन, साबुन, तेल, क्रीम, पाउडर आदि का प्रमाण करें । ( 3, 5 ,7 आदि )

११. ब्रह्मचर्य :- परस्त्री का सर्वथा त्याग , स्वस्त्री के साथ मर्यादा का संकल्प करें ।

१२. दिशा :- दश दिशाओ में अथवा एक दिशा में इतने कि. मी. से अधिक दूर जाने की सीमा निश्चित करना । (50 या 100 किलोमीटर )

१३. स्नान :- श्रावक प्रतिदिन स्नान, हाथ पैर धोने की, जल की मर्यादा संख्या की मर्यादा रखना । (1 या 2 स्नान, 2 बाल्टी पानी से अधिक का त्याग)

१४.भत्त नियम :- प्रतिदिन अन्न पानी आदि चारो आहारों का तोल रखना । (रात्रिभोजन का त्याग, दिन में 2, 3 बार आदि)

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

MAITRI BHAV NU PAVITRA ZARNU

*👆એક સુંદર ભાવના*

*(મૈત્રી ભાવનું પવિત્ર ઝરણું)*
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*🎧મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*ગુણથી  ભરેલા ગુણીજન  દેખી  હૈયું મારું  નૃત્ય  કરે, એ  સંતોના ચરણ કમળમાં  મુજ જીવનનો અર્ધ્ય  રહે*

*દીન,  ક્રૂર  ને  ધર્મવિહોણાં   દેખી  દિલમાં  દર્દ  રહે, કરુણાભીની   આંખોમાંથી   અશ્રુનો   શુભ  સ્રોત વહે*

*મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*માર્ગ ભૂલેલા જીવન પથિકને માર્ગ  ચીંધવા ઊભો રહું, કરે  ઉપેક્ષા  એ  મારગની  તો  ય  સમતા  ચિત્ત ધરું*

*વીરપ્રભુની ધર્મભાવના  હૈયે   સૌ   માનવ  લાવે, વેરઝેરનાં  પાપ   તજીને   મંગળ   ગીતો   એ  ગાવે*

*મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*રચના: શ્રી ચિત્રભાનુ મહારાજ*

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

Tirth Moolnayak

*૦૧) Talaja* Sumtinath prabhu

*૦૨) Taranga* Ajitnath prabhu

*૦૩) Girnar* Neminath prabhu

*૦૪) Mahuva* Jivit mahavir swami

*૦૫) Ghogha* Navkhanda parshvnath prabhu

*૦૬) Prabhas patan* Chandraprabh swami


*૦૭) Mangrol* Navpallav parshvanath

*૦૮) Bharuch* Munisuvratswami

*૦૯) Bhoyani* Mallinathprabhu

*૧૦) Champapuri* Vasupujyaswami

*૧૧) Ranakpur* Rushabhdev prabhu

*૧૨) Mehsana* Simndharswami

*૧૩) Suthari* Dhrutkallol parshvnath prabhu

*૧૪) Bamanvada* Mahavirswami prabhu

*૧૫) Tintoi* Muhri parshvanath prabhu

*૧૬) Rajgruhi* Munisuvratswami

*૧૭) Mahudi* padma prabhu swami

*૧૮) Bhopavar* Shantinath prabhu

*૧૯) Ujjain* Avanti parshvanath

*૨૦) Mandavgadh* Suparshvnath