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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

नवपद - आराधना, श्रीपाल-मयणा सुंदरी , कर्म सिद्धान्त कथा, Navpad mahima, shripal katha

जैन जगत में नवपद की महिमा अपरंपार है 
जिनशास्त्रों के अनुसार करीबन इग्यारह लाख वर्ष पूर्व, अनंत उपकारी प्रभु मुनिसुव्रत स्वामीजी के समय में यह तप-उपासना की गई थी

जिनशासन की परम् उपासक, जिनभाषित कर्म के सिद्धांत पर अटूट् श्रधा रखने वाली सुश्राविका मयणासुंदरी ने अपने सुश्रावक पतिदेव महाराजा श्रीपाल के कोढ़ रोग निवारण हेतु... उज्जैन नगरी में सिद्धचक्रजी की आराधना करके उस भयंकर रोग से मुक्ति दिलायी थी l

  इस तप की महिमा का उल्लेख करीबन् 2600 वर्ष पहले वर्तमान जिनशासक देव श्रीमहावीरस्वामीजी ने... अनंतलब्धिनिधाय गौतमस्वामीजी और श्रेणिक महाराजा को अपनी देशना में कही थी l.

उज्जैन नगर में महाप्रतापी प्रजापाल नामक राजा राज्य कर रहे थे, उनके दोनो रानियों से एक एक पुत्री थी, पहली रानी सोभाग्यसुंदरी की पुत्री का नाम सुरसुन्दरी जो स्वभाव् से मिथ्यात्व को मानने वाली थी, दुसरी रूपसुंदरी की पुत्री का नाम मयणासुंदरी.जो सम्यक्त्व को धारण किये हुए थीl

मयणा के पिता - एक दिन राज्यसभा में अपनी पुत्रियों की बुद्धिमता की परीक्षा लेते हुए कर्म के सवाल पर राजा ने पुछा ,क्या पिता के कर्म से प्राप्त एश्वर्य से आपको सभी खुशियाँ मिल सकती है..?

प्रश्नोत्तर में सुरसुंदरी ने कहा... मुझे मेरे महान् राजा पिता की कृपा से सब कुछ मिल जायगा l

प्रश्नोंत्तर में मयणासुंदरी ने कहा... सभी जीवात्मा अपने पूर्व एवं वर्तमान कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख प्राप्त करते है, उसमे न कोई कम कर सकता है न ही बढ़ा सकता है l

मयणा के पिता - यह सुनकर अभिमान से चूर राजा अति क्रोधित होते हुए कहा... मयणा.. तुझे ये हीरे से जड़े रेशमी वस्त्र, स्वादिस्ट भोजन, रत्न के झुले, दास-दासियाँ सभी कुछ मेरी मेहरबानी की वजह से मिल रहे है l

मयणा.. पिताश्री आप क्रोधित न होवें, मैंने मेरे पुर्वजन्म के कृत कर्मों के कारण ही आपके यहाँ जन्म लिया है

 पूर्व भवोंभव में किये पुण्यमयी कार्य, जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा, राजा, रंक या त्रियंच जो भी जीवन मिला... उसे न्यायोच्चित्त जिनवाणी के अनुसार जीने वालो को अवश्य ही उपकारी प्रभु का मार्गदर्शन मिलता है l

 श्रीपालकुमार राजा के घर जन्म लेकर भी कोढ़ रोग से ग्रस्त क्यों...?

श्रीपाल राजा पुर्व भव में हीरण्यपुर नगर के श्रीकांत राजा थे, जिन्हें शिकार का व्यसन था ! उनकी रानी श्रेष्ठ गुणवाली श्रीमती... जिनकी जैनधर्म पर अटूट श्रद्धा थी, वह हमेशा राजा को एकांत में समझाया करती थी...प्राणेश ! किसी भी जीव की हिंसा से जन्मोंजन्म तक भयंकर परिणाम भुगतने पड़ते है, इस घर्णास्पद कृत्य से मैं और पृथ्वी दोनों लज्जित हो रहे है, आदि ! लेकिन गलत मार्ग के व्यसनी इतनी जल्दी कहाँ समझने वाले थे?

एक दिन सात सौ लोगो की टोली के साथ राजा श्रीकांत शिकार के लिए भयंकर जंगल में गये, वहाँ काउसग्ग ध्यान में खड़े एक मुनिराज को देखकर सभी व्यंग के साथ कहने लगे,यह तो किसी रोग से ग्रसित कोढ़िया है, इसे मारो मारो ! राजा के मुख से निकलते ही सभी ने मिलकर मुनिराज को मारते मारते लोहलुहान कर दिया l इस दृष्य को देख राजा श्रीकांत आनंदरस में डूब गये l

मुनिवर ने तो समता भाव में लीन होकर आत्मकल्याण किया, उधर धर्मानुरागी श्रीमती के बारबार अनंत बार समझाते रहने से अंतत: श्रीकांत को पूर्व पुण्य के उदय से अपने कुकृत कार्यो का एहसास हुआ, और अपने महापाप का प्रायश्चित करते करते संयम-दीक्षा धारण की l

जिनशासन के नव पदों की आराधना करते हुए श्रीकांत के जीव ने मृत्यु के उपरांत श्रीपाल राजा के भव में जन्म लिया, पूर्वो पूर्व पुण्य एवं कठोर पश्याताप से राजा के यहाँ उम्बर नाम से जन्म मिला, मगर जन्म के साथ ही कोढ़ रोग से ग्रसित थे l

राजा श्रीकांत के पूर्व भव के सात सौ सैनिक भी कोढ़ रोग से ग्रसित होकर मानव जन्म में आये, जब श्रीपाल कुमार बड़े हुए, तब संयोग से एक दिन वह कोढियों की टोली घुमती फिरती उस गाँव में आयी और श्रीपालकुमार को अपने साथ ले जाकर टोली का प्रमुख (उम्बरराणा नाम से) बना लिया l

उधर प्रजापाल राजा ने पुत्री सुरसुन्दरी ( पिता-कर्मी ) को इच्छित वरदान दिया, एवं शंखपुरी के अधिपति रूप के राजा अरिदमन के साथ उसका विवाह राजशाही ठाठ-बाट से किया, दहेज में अनन्य धन-दौलत दास-दासियाँ दी l

घमंडी पिता प्रजापाल ने मयणा को धिक्कारते हुए कहाँ... तूने मेरा अपमान किया है, तू वास्तव में मुर्ख शिरोमणि है, इस राजसभा के समक्ष मेरे मान-सम्मान को भयंकर ठेस पहुंचायी है, इसका दंड तुझे अवश्य मिलेगा l

अगले दिन प्रजापाल शिकार पर निकले, वहाँ एक झुंड को आते देखा, पता लगाने पर मालुम हुआ.. यह सातसौ कोढियों का झुंड है l

राजा का विरोधी मन अहंकार से ज्वलित हो उठा और पुत्री मयणा का विवाह कोढियों के राजा उम्बरराणा के साथ करने का निश्चय कर लिया ! सोचने लगे.. मयणा कर्म-कर्म करती है, वह कर्म का प्रत्यक्ष फल प्राप्त करें, वे कटुवचन मेरे मन मष्तिस्क में अभी भी खटक रहे है l

उम्बरराणा की बरात राजमहल की और बढ़ रही है, राणा खच्चर पर सवार है, कोतहुल का माहोल है... सभी रोग से क्षीण है, कोई लुला-लंगड़ा है, कईओं के शरीर पर घाव है, खून टपक रहा है, मक्खियाँ भिनभीना रही है, उनको देखकर लग रहा था.. नरक से भी बदत्तर जिन्दगी जी रहे है l

राजसभा में प्रजापाल ने आदेश स्वरूप कहा... मयणा ! तेरे कर्मो द्वारा प्रदान यह तेरा पति आया है, इसके साथ शादी कर सभी प्रकार के सुखों को तू भोग l

कर्म आधारित भाग्य पर भरोसा करने वाली मयणासुंदरी ने क्षणभर भी विलंब किये बिना दर्द से कहराते हुए कोढ़ीये के गले में वरमाला अर्पित कर उसे पति के रूप में स्वीकार कर लिया । उम्बरराणा लडखडाती आवाज में मयणा से कहते है ,खुब गहराई से सोच ले, कंचनवर्णी तेरी काया मेरे संग से नष्ट हो जायगी, तुम देवांगना जैसी मुझे पति मानना  उचित नही है l

ऐसे वचन सुनकर मयणा को अपार दुःख हुआ, आँखों से टपटप आँसू टपकने लगे, पति के चरणों में गिरकर बोली , हे प्राणेश्वर..! आप यह क्या बोल रहे है, जैसे सूर्य पश्चिम दिशा में नही उगता, ठीक वैसे ही सती स्त्रियाँ अपने पतिधर्म से कभी नही डगमगाती l

 पूर्व भवोंभव में किये पुण्यमयी कार्य, जिनवाणी पर अटूट श्रद्धा, राजा, रंक या त्रियंच जो भी जीवन मिला हैं उसे न्यायोच्चित्त जिनवाणी के अनुसार जीने वालो को अवश्य ही उपकारी प्रभु का मार्गदर्शन मिलता है l याद रहे हमारा वर्तमान भी अगले जन्मों का पूर्व भव होगा - तुरन्त जागों ओर आगे बढ़ों l

मयणासुन्दरी - प्रातः काल होने पर मयणा ने अपने पति से कहा, हे प्राणनाथ चलो अपने भगवान आदिनाथ के मंदिर जाकर युगादिदेव के दर्शन करें, ऋषभदेव प्रभु के दर्शन करने से दुःख एवं क्लेश का नाश होता है, एकाग्रचित भक्ति भाव से दोनो ने प्रभु दर्शन, चैत्यवंदन, कार्योत्सर्ग आदि करके मयणा प्रभु से प्रार्थना करने लगी , हे प्रभु ! आप जगत में चिंतामणी रत्न के समान है, मोक्ष प्रदान करने वाले है ! शरण में आये इस सेवक के भी आप ही आधार है, हमारे दुःख - दुर्भाग्य को दूर कीजिये l

जिनेश्वर का वंदन-पूजन करके मयणा ने पतिदेव से कहा , प्राणनाथ, पास में ही पोषधशाला में गुरुभगवंत विराजमान है, एवं वे देशना दे रहे है.. हम भी धर्म देशना का श्रवण करें ! देशना के उपरांत मयणा ने गुरुदेव को विनंती करते हुए कहा, गुरुदेव ! आगम शास्त्रों में देखकर ऐसा कोई उपाय बताइये कि आपके इस श्रावक के देह का कोढ़ रोग नष्ट हो जाय ।

  तब आचार्य भगवंत बोले : यंत्र-तंत्र-जड़ी-बुटी-मणिमंत्र-ओषधि आदि उपचार बताना जैन साधुओं का आचार नही है, गुरुदेव ने आगम को देखकर मयणा को कहा.. श्री सिद्धचक्रजी के पट्ट की स्थापना कर नवपद की आराधना-ध्यान-पूजन करें ! यह तप आसोज शुक्ला सप्तमी को आरंभ कर नौ आयम्बिल करें, इसी तरह चैत्र शुक्ला सप्तमी से भी ।
 कुल साढ़े चार वर्ष तक अर्थात 9 ओलीजी की आराधना कपट-माया-दम्भ रहित शुद्ध भक्तिभाव से करें l

नवपद आराधना :  इस तप की विशुद्ध आराधना से रोग-दुःख-दुर्भाग्य सभी शांत हो जाते है ! पूजन के पश्चात्त पक्षाल को लगाने से अठारह प्रकार के कोढ़ रोगो का नाश होता है, गुमड़े एवं घाव भी अच्छे हो जाते है, विविध प्रकार की पीड़ा, वेदना सभी दुर हो जाते है । मन-वचन-काया को संयम में रखकर, शुद्ध उच्चारण से, नवपद को समर्पित भाव से धर्मध्यान-आराधना करें, उसकी सभी प्रकार की वेदनाएं दूर होकर इस भव और परभव में भी मनवांछित सिद्धियाँ हासिल होगी l

जिनगुरु मुनिचन्द्रसुरिश्वरजी ने मयणा को श्री सिद्धचक्रजी का यंत्र बनाकर दिया, एवं सम्पूर्ण विधि समझाकर शुभ आशीष स्वरूप् वाक्षेप प्रदान किया l वहां उपस्थित श्रावक-श्राविकाओ ने मयणा - उम्बरराणा को अपने घर लेजा कर स्वामीभक्ति की, साधर्मिक भक्ति करने से सम्यक्त्व निर्मल होता है । दोनों ने वही रहकर गुरुदेव की निश्रा में नवपदजी का पूजन, आयम्बिल तप, क्रिया सभी गुरु आज्ञानुसार विधिवत नौ दिनों तक पूर्ण किया l

आयम्बिल के प्रथम दिन से सकारात्मक परिणाम, नवमें 
दिन की आराधना पूर्ण होते होते.. उम्बरराणा के सभी तरह के रोग नष्ट होकर.. राणा एक तेजश्वी,  कांतिमय, राजकुमार श्रीपाल का रूप फिर से धारण कर लिया l

यह उनके द्वारा पूर्वभव में की गलतियों का उसी भव में आत्मिक  पश्चाताप और यहाँ शुद्ध भाव से जिनशासन के नौरत्नों की आराधना का ही नतीजा था l
 पुज्य जिनगुरुदेव की धर्म सभा.. एक धव्नि से जिनशासन महिमा, जैनम् जयति शासनम् और गुरुदेव के उपदेशों की जय-जयकार से गुंज उठी l

गुरुदेव और माँ का आशीर्वाद - श्रीपाल मयणासुंदरी दोनों तेजश्वी रूप और गुरूदेव का आशीर्वाद लेकर अपने घर पहुंचे, दोनों ने माँ के चरण-स्पर्श किये, माँ ने दोनों को गले लगाते हुए करुणामयी आशीर्वाद दिया, जिनवाणी के मार्गदर्शन को शाश्वत बताते हुए.. तह दिल से बहू का आभार व्यक्त किया, बहू ने भी ख़ुशी के आंसुओं के साथ माताजी के दुबारा चरण स्पर्श किये l

कल्याणमित्रों का भी उद्धार -  भवोंभव से जिनशासन की आराधना में रहे इस जोड़े ने अपने 700 कोढि साथियों को भी नवपद आराधना विधिवत करवाकर उनका भी रोग दूर कर निरोगी बना दिया यह है. कल्याण मित्र का फर्ज और मित्रता का फल l

अशुभकर्म से बहन रूपसुन्दरी बनी नृत्यांगना -वर्षो उपरांत एक दिन राजा प्रजापाल (मयणा के पिता) ने महाकाल राजा के स्वागत में कार्यक्रम रखा, उसमे श्रीपालराजा, मयणा को भी बुलाया गया, कार्यक्रम में नृत्य रखा गया और नृत्यांगनायें भी बुलाई गयी... नृत्य की शुरुआत हुई अशुभ कर्म करने और उनके उदय से उस नृत्यागनां की पहचान  मयणा की बहन रुपसुन्दरी के रूप में हुई, जब सभी को पता चला तब सूर सुन्दरी बहन मयणा के पैरो में गिरकर बहुत रोई, एवं अपनी पूरी व्यथा बताई, किस तरह वह बिककर वैश्यालय पहुँच गयी, अकथनीय कष्टों को भुगता, मयणा उसे  सांत्वना देकर घर लेकर गयी, सुरसुन्दरी भी पश्याताप करते हुए स्वकर्म को स्वीकार कर जिन आराधना में लग गयी l

राजा प्रजापाल को भी अपनी गलती का अहसास हुआ - उसने मयणा से कहा.. मैंने तुझे दुःखी करना चाहा.. तू सुखी बनी और सुरसुन्दरी को सुखी करना चाहा.. वह दुखी बनी l 

 प्रजापाल ने नतमस्तक होते हुए, भूल को स्वीकार कर माना कि में सर्वथा गलत था, यह असत्य है कि में किसी को सुखी या दुःखी कर सकता हूँ। वास्तव में कर्म सत्ताधीश है, राजा महाराजा प्रजा सभी कर्माधिन है.. यह सत्य मैंने प्रत्यक्ष देखा है l

श्रीपाल का महाराजा के रूप में राज्यभिषेक हुआ - उधर प्रजापाल राजा ने भी मालव देश के राज सिंहासन पर श्रीपाल का राज्य अभिषेक किया और स्वयं वैराग्य ग्रहण कर आत्म साधना के मार्ग पर अग्रसर हो गये l श्रीपाल राजा ने सुरसुन्दरी के पति अरिदमन को बुलाकर हाथी, घोड़े, जवेरात आदि के साथ शंखपुर का राज्य भी देकर विदा किया l उस समय के करीब 700 राजाओं ने प्रणाम कर श्रीपाल की आज्ञा को स्वीकारा l

 चारों ओर जिनधर्म जिनवाणी की जय जयकार होने लगी

 

जगत कृपालु महावीर परमात्मा ने गणधर गौतमस्वामीजी एवं श्रेणिक राजा की उपस्थिति में हुई देशना के अंतर्गत नवपद आराधना का सविस्तार वर्णन किया साथ ही श्रीपाल मयणा की नवपद आराधना का उल्लेख भी किया था l

यह चरित्र 15 वीं शताब्दी में श्री रत्नशेखर सूरीश्वरजी ने प्राकृत भाषा में पद्यमय निबद्ध किया,18 वीं शताब्दी में उपाध्याय श्री विनय विजयजी एवं यशो विजयजी म. ने श्रीपाल चरित्र रास का लेखन किया..  वर्तमान में इसी रास के आधार से ओलीजी के व्याख्यान हो रहे है। 

जगत उपकारी भगवन्त महावीर देशना...
उपकारी अरिहंत प्रभु, सिद्ध भजो भगवंत !
आचारज उव्झाय तिम, साधु सकल गुणवंत !!

अर्थ - अनंत उपकारी अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवंतों की उपासना करों l

दरिसण दुर्लभ ज्ञान गुण, चारित्र तप सुविचार !
सिद्धचक्र ए सेवंता पामिजे भवपार 
अत्यंत दुर्लभ सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप का शुद्ध भावपूर्वक भजने से जीव भवसागर को पार कर लेता है। 

सोमवार, 30 सितंबर 2019

गिरनार तीर्थ पर प्रतिष्ठित 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा की प्राचीनता

गिरनार तीर्थ पर प्रतिष्ठित 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा की प्राचीनता 

गत चौवीसी के तीसरे तीर्थंकर सागरप्रभु का जब केवलज्ञान कल्याणक हुआ, तब नरवाहन राजा ने समोवसरण मे सागरप्रभु से पूछा की मेरा मोक्ष कब होगा?? 
तब सागर तीर्थंकर ने बताया कि आवती चौवीसी के "22वे तीर्थंकर नेमिनाथ" के तुम "वरदत्त" नाम से प्रथम शिष्य (गणधर)बनकर मोक्ष पाओगे, 

वैराग्य उत्पन्न होकर नरवाहन राजा का, सागर तीर्थंकर के पास दीक्षा लेकर आयुष्य पुर्ण कर पांचवे देवलोक मे 10सागरोपम की आयु वाला इन्द्र के रूप मे जन्म हुआ l

5वे देवलोक के इन्द्र (नरवाहन राजा) ने देवलोक मे अपने भावि उपकारी नेमिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा बनाई, और अत्यन्त आनंद और भक्ति से उस प्रतिमा की देवलोक मे पूजा भक्ति करने लगा l

फिर प्रत्येक उत्कृष्ट भव पाकर वर्तमान चौविसी के 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ के समय मे "पुण्यपाल राजा के रूप मे जन्म लेकर नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर उनके प्रथम गणधर वरदत्त बने l

समोसरण मे तीर्थंकर नेमिनाथ ने नरवाहन राजा का ,इन्द्र बनकर प्रतिमा बनाकर भक्ति करना और फिर कालक्रमे वरदत्त गणधर बनने की बात कही, तब समोवसरण मे दुसरे देवताओ ने कहा कि देवलोक मे उस  प्रतिमा को हम आज भी शाश्वती प्रतिमा समझकर पूजा भक्ति करते है 
चूंकि  देवलोक मे  शाश्वती प्रतिमा ही होती है इसलिये नेमिनाथ भ.ने वह अशाश्वती मूर्ति देवलोक से लाने को कहा, जिसे द्वारका के क्रष्ण राजा ने अपने राजमहेल मे प्रतिष्ठित कर पूजा भक्ति की, द्वारका नगरी विलुप्त होने पर शासन देवी अंबिका (अंबे मां) प्रतिमा को गिरनार की गुफा मे ले जाकर भक्ति करने लगी,
 नेमिनाथ भगवान के निर्वाण के 2000वर्ष बीतने  के बाद रत्नसार श्रावक द्वारा अवधि ज्ञानी  आनंदसुरिजी आचार्य की प्रेरणा से वह मूर्ति अंबिका देवी से पाकर गिरनार के मंदिर मे प्रतिष्ठित कराई गई ,रत्नसारश्रावक द्वारा यह प्रतिमा को प्रतिष्ठित हुए "84,785" वर्ष हुए हैं 

गत चौविसी के तीसरे सागर तीर्थंकर से वर्तमान समय तक श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा ""165735वर्ष- न्यून , (कम) 20कोडाकोडी सागरोपम""वर्ष प्राचीन है l

नंदीश्वर Nandishwar Bandish var dweep dwip

नन्दीश्वर द्वीप   

जम्बूद्वीप से आठवां द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। यह नन्दीश्वर समुद्र से वेष्ठित है। इस द्वीप का मण्डलाकार से विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप में पूर्व दिशा में ठीक बीचोंबीच अंजनगिरि नाम का एक पर्वत है। यह ८४००० योजन विस्तृत और इतना ही ऊंचा समवृत्त-गोल है तथा इन्द्रनील मणि से निर्मित है। इस पर्वत के चारों ओर चार दिशाओं में चार द्रह हैं, इन्हें बावड़ी भी कहते हैं। ये द्रह एक लाख योजन विस्तृत चौकोन हैं। इनकी गहराई एक हजार योजन है। इनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है। ये जलचर जीवों से रहित हैं। इनमें एक हजार उत्सेध योजन प्रमाण विस्तृत कमल खिल रहे हैं। इन वापियों के नाम दिशा क्रम से नन्दा, नन्दावती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा हैं। इन वापियों के चारों तरफ चार वन उद्यान हैं जो कि एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े हैं। ये पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन हैं। इनमें से प्रत्येक वन में वन के नाम से सहित चैत्यवृक्ष हैं। प्रत्येक वापिका के बहुमध्य भाग में दही के समान वर्ण वाले दधिमुख नाम के उत्तम पर्वत हैं। ये पर्वत दश हजार योजन ऊंचे तथा इतने ही योजन विस्तृत गोल हैं। वापियों के दोनों बाह्य कोनों पर रतिकर नाम के पर्वत हैं जो कि सुवर्णमय हैं, एक हजार योजन विस्तृत एवं इतने ही योजन ऊंचे हैं। इस प्रकार पूर्व दिशा संबंधी एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर ऐसे तेरह पर्वत हैं। इन पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मंदिर स्थित हैं।

जैसे यह पूर्व दिशा के तेरह पर्वतों का वर्णन किया है, वैसे ही दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में भी तेरह-तेरह पर्वत हैं। उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। इस तरह कुल मिलाकर १३±१३±१३±१३·५२ जिनमंदिर हैं। जैसे पूर्व दिशा में चार वापियों के क्रम से नंदा आदि नाम हैं, वैसे ही दक्षिण दिशा में अंजनगिरि के चारों ओर जो चार वापियां हैं उनके पूर्वादि क्रम से अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका ये नाम हैं। पश्चिम दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशाओं में क्रम से विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये नाम हैं तथा उत्तर दिशा के अंजनगिरि के चारों दिशागत वापियों के रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नाम हैं।

चौंसठ वन -
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इन सोलह वापिकाओं के प्रत्येक के चार-चार वन होने से १६²४·६४ वन हैं। प्रत्येक वन में सुवर्ण तथा रत्नमय एक-एक प्रासाद हैं। उन पर ध्वजायें फहरा रही हैं। इन प्रासादों की ऊँचाई बासठ योजन, विस्तार इकतीस योजन है तथा लम्बाई भी इकतीस योजन ही है। इन प्रासादों में उत्तम-उत्तम वेदिकायें और गोपुर द्वार हैं। इन में वनखण्डों के नामों से युक्त व्यंतर देव अपने बहुत से परिवार के साथ रहते हैं।

बावन जिनमंदिर-
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इस प्रकार नन्दीश्वर द्वीप में ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर ये ५२ जिनमंदिर हैं। प्रत्येक जिनमंदिर उत्सेध योजन से १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊंचे हैं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भगृह में ५०० धनुष ऊंची पद्मासन जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। इन मंदिरों में नाना प्रकार के मंगलघट, धूपघट, सुवर्णमालायें, मणिमालायें, अष्टमंगल द्रव्य आदि शोभायमान हैं। इन मंदिरों में देवगण जल, गंध, पुष्प, तंदुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादि द्रव्यों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं। ज्योतिषी, वानव्यंतर, भवनवासी और कल्पवासी देवों की देवियाँ इन जिनभवनों में भक्तिपूर्वक नाचती और गाती हैं। बहुत से देवगण भेरी, मर्दल और घन्टा आदि अनेक प्रकार के दिव्य बाजों को बजाते रहते हैं।

आष्टान्हिक पर्व पूजा -
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इस नंदीश्वर द्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक चारों प्रकार के देवगण आते हैं और भक्ति से अखण्ड पूजा करते हैं। उस समय दिव्य विभूति से विभूषित सौधर्म इन्द्र हाथ में श्रीफल-नारियल को लेकर भक्ति से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है। उत्तम रत्नाभरणों से विभूषित ईशान इन्द्र भी उत्तम हाथी पर चढ़कर हाथ में सुपाड़ी फलों के गुच्छे को लिए हुए भक्ति से वहां पहुंचता है। हंस, क्रौंच, चक्रवाक, तोता, मोर, कोयल आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर चढ़कर हाथ में फलों को लेकर सभी इन्द्र स्वर्ग से आते हैं तथा कटक, अंगद, मुकुट एवं हार से संयुक्त और चन्द्रमा के समान धवल चंवर हाथ में लिए हुए अच्युतेन्द्र उत्तम मयूर वाहन पर चढ़कर यहां आता है।[१]

ये जो नाना प्रकार के मयूर, कोयल, तोता आदि वाहन बताये हैं, वे सब आभियोग्य जाति के देव उस-उस प्रकार के वाहन का रूप बना लेते हैं चूंकि वहाँ पशु-पक्षी नहीं हैं। नाना प्रकार की विभूति से सहित, अनेक फल, पुष्पमालाओं को हाथों में लिए हुए और अनेक प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ ज्योतिषी, व्यंतर एवं भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहां आते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव नंदीश्वर द्वीप के दिव्य जिनमंदिरों में आकर नाना प्रकार की स्तुतियों से दिशाओं को मुखरित करते हुए प्रदक्षिणाएं करते हैं।

चतुर्णिकाय देवों की पूजा का क्रम-
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पूर्वान्ह में दो प्रहर तक भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर देव पश्चिम दिशा में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूजा करते हैं। पुन: अपरान्ह में दो प्रहर तक कल्पवासी देव दक्षिण में, भवनवासी पश्चिम में, व्यंतरवासी उत्तर में और ज्योतिषी पूर्व में पूजा करते हैं। अनन्तर पूर्व रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी पश्चिम में, भवनवासी उत्तर में, व्यंतर पूर्व में और ज्योतिषी दक्षिण में पूजा करते हैं। तत्पश्चात् पश्चिम रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी उत्तर में, भवनवासी पूर्व में, व्यंतर दक्षिण में और ज्योतिषी पश्चिम में पूजा करते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वान्ह, अपरान्ह, पूर्व रात्रि और पश्चिम रात्रि में दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा क्रम से अपनी-अपनी विभूति के योग्य जिनेन्द्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। वहां के सूर्य, चन्द्रमा अपने-अपने स्थान पर स्थिर हैं अत: वहां रात-दिन का विभाग नहीं है।
पूजाविधि -
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सभी देवेन्द्र आदि मिलकर उन अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं का विधिवत् अभिषेक करते हैं पुन: जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से अष्टविध अर्चा करते हैं। वे देवगण अनेक प्रकार के चंदोवा आदि को बांधकर भी भक्ति से जिनेश्वर अर्चा करते हैं। इन चंदोवा में हार, चंवर और किंकणियों को लटकाते हैं। इस प्रकार चंदोवा, छत्र, चंवर, घण्टा आदि से मन्दिर को सजाते हैं। ये सभी देवगण पूजा के समय गंदल, भेरी, मृदंग, पटह आदि बहुत प्रकार के बाजे भी बजाते हैं।

वहां दिव्य वस्त्राभरणों से सुसज्जित देवकन्यायें विविध प्रकार के नृत्य करती हैं और अन्त में जिनेन्द्र भगवान के चरित्रों का अभिनय करती हैं। सभी देवगण भी मिलकर बहुत प्रकार के रस और भावों से युक्त जिनेन्द्रदेव के चरित्र सम्बन्धी नाटक को करते हैं। इस प्रकार नंदीश्वर द्वीप और नन्दीश्वर पर्व की पूजा का वर्णन हुआ है। यह द्वीप मानुषोत्तर पर्वत से परे हैं अत: यहां मनुष्य नहीं जा सकते हैं केवल देवगण ही वहां जाकर पूजा करते हैं। वहां विद्याधर मनुष्य और चारण ऋद्धिधारी मुनीश्वरगण भी नहीं जा सकते हैं अत: इन पर्वों में यहां भावों से ही पूजा कर भव्यजन पुण्य संचय किया करते हैं।

कुण्डलवर द्वीप एवं रुचकवर द्वीप-
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कुण्डलवर नाम से यह ग्यारहवाँ द्वीप है, इसके ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक कुण्डलवर पर्वत है। इस पर्वत की चारों दिशाओं में एक-एक जिनमन्दिर है अत: वहां चार जिनमन्दिर हैं। ऐसे तेरहवां द्वीप रुचकवर नाम का है। वहां पर भी ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक रुचकवर पर्वत है। उस पर भी चारों दिशाओं में एक-एक जिनमन्दिर होने से वहां के भी जिनमन्दिर चार हैं। इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत से बाहर में नन्दीश्वर के ५२± कुण्डलवर के ४± रुचकवर के ४·६० जिनमन्दिर हैं तथा मनुष्यलोक के मानुषोत्तर पर्वत तक ३९८ जिनमन्दिर हैं। ये सब ३९८±६०·४५८ अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। इस तेरहवें द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में अन्यत्र कहीं भी स्वतन्त्ररूप से अकृत्रिम जिनमन्दिर नहीं हैं। हां, सर्वत्र व्यंतर देव और ज्योतिषी देवों के घरों में अकृत्रिम जिनमन्दिर अवश्य हैं, वे सब गणनातीत हैं। इन सब जिनमन्दिरों को मेरा नमस्कार होवे।

जम्बूद्वीप jambuudwip jambu dwip

जंबूद्वीप:-

A[ प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के चरम ( अंतिम किनारे के) प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श
करते हैं?
[ उ. ] हाँ, गौतम । वे लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं ।

[ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के जो प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं, क्या वे जम्बूदीप के ही प्रदेश कहलाते हैं या लवणसमुद्र के प्रदेश कहलाते हैं ?
{ उ.] गौतम ! वे जम्बूद्वीप के ही प्रदेश कहलाते हैं, लवणसमुद्र के नहीं कहलाते । इसी प्रकार
लवणसमुद्र के प्रदेशों की बात है, जो जम्बूद्वीप का स्पर्श करते हैं ।

[ प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के जीव मरकर लवणसमुद्र में उत्पन्न होते हैं ?
[ उ. ] गौतम ! कतिपय उत्पन्न होते हैं, कतिपय उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार लवणसमुद् के जीवो
के जम्बूद्वीप में उत्पन्न होने के विषय में जानना चाहिए।

 (१) खण्ड, (२) योजन, (३) वर्ष, ( ४) पर्वत (५) कूट, (६) तीर्थ, ( ७) श्रेणियाँ, (८)
विजय, (९) द्रह, तथा (१०) नदियाँ-इनका प्रस्तुत सूत्र में वर्णन है, जिनकी यह संग्राहिका गाया है।

[ प्र. १] भगवन् ! (एक लाख योजन विस्तार वाले) जम्बूदीप के (526/6/19 योजन विस्तृत) भरत क्षेत्र के प्रमाण जितने-भरत क्षेत्र के बराबर खण्ड किये जाएँ तो कितने खण्ड होते हैं ?
[ उ. ] गौतम ! खण्डगणित के अनुसार वे एक सौ नब्बे होते हैं ।
[ प्र. २ ] भगवन् ! योजनगणित के अनुसार जम्बूद्वीप का कितना प्रमाण है ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल-प्रमाण (७,९०,५६,९४, १५०) सातअरब नव्बे करोड़
छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है ।

[ प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्ष-क्षेत्र हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में सात वर्ष-क्षेत्र हैं- (१ ) भरत, ( २ ) ऐरावत, (३) हैमवत, ( ४)
हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष, तथा (७) महाविदेह।
[ प्र. ४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने वर्षधर पर्वत, कितने मन्दर पर्वत, कितने चित्र
कूट पर्वत, कितने विचित्र कूट पर्वत, कितने वमक पर्वत, कितने काञ्यनक पर्वत, कितने वक्षस्कार
पर्वत, कितने दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा कितने वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं ?
[ उ. ] गौतम !जम्बूद्वीप के अन्तर्गत छह वर्षधर पर्वत, एक मन्दर पर्वत, एक चित्र कूट पर्वत,
एक विचित्र कूट पर्वत, दो यमक पर्वत, दो सौ काञ्चनक पर्वत, बीस वक्षस्कार पर्वत, चौतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा चार वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं । यों जम्बूद्वीप में पर्वतों की कुल संख्या ६ + १ + १ + १ + २ + २०० + २० + ३४ + ४=२६९ (दो सौ उनहत्तर) हैं।

[ प्र. ५] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्षधरकूट, कितने वक्षस्कारकूट, कितने वैताज्यकूट तथा
कितने मन्दरकूट हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में छप्पन वर्षधर कूट, छियानदे वक्षस्कार कूट, तीन सौ छह वैताब्य कूट
तथा नौ मन्दर कूट बतलाये हैं। इस प्रकार ये सब मिलाकर कुल ५६ + ९६ + ३०६ + ९
४६७ कूट हैं।
[ प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूदीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं-(१) मागध तीर्थ, ( २ ) वरदाम
तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ।
[पर.] भगवन् ! जम्बूद्वीप  के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ?
[ उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं- (9) मागध तीर्थ, ( २) वरदाम
तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ ।
[ प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक एक चक्रवर्तिविजय में कितने-कितने
तीर्थ हैं?
[उ. ] गौतम !  जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक- एक चक्रवर्तिविजय में तीन- तीन तीर्थ
हैं-(१) मागध तीर्थ, (२) वरदाम तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ ।
यों जम्बूदीप के चौंतीस क्षेत्रों में कुल मिलाकर ३४ x३=१०२ (एक सौ दो) तीर्थ हैं।
[प्र. ७] भगवन् ! जम्बूदीप के अन्तर्गत विद्याधर श्रेणियाँ तथा आभियोगिक श्रेणियाँ
कितनी-कितनी हैं?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में अड़सठ विद्याधर श्रेणियां तथा अड़सठ आभियोगिक श्रेणियाँ हैं (प्रत्येक दीर्घ वैताळ्य पर्वत पर दो-दो)। इस प्रकार कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में ६८ + ६८=१३६ (एक सौ छत्तीस) श्रेणियाँ हैं l

[ प्र. ८] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चक्रवर्तिविजय, राजधानियाँ, तिमित्र गुफाएँ, खण्डप्रपात
गुफाएँ, कृत्तमालक देव, नृत्तमालक देव तथा ऋषभकूट कितने-कितने हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौंतीस चक्रवर्तिविजय ( १ भरत, १ ऐरावत, ३२ महाविदेह
विजय), चौंतीस राजधानियाँ, चौंतीस तिमिस्र्र गुफाएँ, चौंतीस खण्डप्रपात गुफाएँ, चौतीस कृत्मालक देव, चौंतीस नृत्तमालक देव तथा चौंतीस ऋषभकूट हैं ।

[प्र. ९] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाद्रह कितने हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सोलह महाद्रह हैं।

[. १०] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वर्षधर पर्वतों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं और
कुण्डों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौदह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से निकलती हैं तथा छिहत्तर महानदियाँ कुण्डों से निकलती हैं । कुल मिलाकर जम्बूदीप में १४ + ७६=९० (नब्बे) महा नदिया हैं।

[ प्र. ११ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र तथा ऐरवत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ हैं?
[उ. ] गौतम ! चार महानदियाँ हैं- (9) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रक्ता, तथा (४) रक्तवती।
एक-एक महानदी में चौदह-चौदह हजार नदियाँ मिलती हैं उनसे आपूर्ण होकर वे पूर्वी एवं पश्चमी
लवणसमुद्र में मिलती हैं भरतक्षेत्र में गंगा महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा सिन्धु महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। ऐरवत क्षेत्र में रक्ता महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा रक्तवती महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है यों जम्बूदीप के अन्तर्गत भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में कुल १४,००० x४ =५६,००० (छप्पन हजार) नदियों होती हैं ।

ललितजी मुथलिया

कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य जी

आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था।
संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे।
समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
जीवनवृत तथा रचनाएं
संस्कृत कवियोंका जीवनचरित्र लिखना कठिन समस्या है। सौभाग्यकी बात है कि आचार्य हेमचंद्रके विषयमें यत्र-तत्र पर्याप्त तथ्य उपलब्ध है। प्रसिद्ध राजा सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल राजा के धर्मोपदेशक होने के कारण ऐतिहासिक लेखकों ने आचार्य हेमचंद्र के जीवन चरित्र पर अपना अभिमत प्रकट किया है।
आचार्य हेमचंद्रका जन्म गुजरातमें अहमदाबाद से १०० किलोमिटर दूर दक्षिण-पश्र्विम स्थित धंधुका नगरमें विक्रम सवंत ११४५के कार्तिकी पुर्णिमा की रात्रि में हुआ था। मातापिता शिवपार्वती उपासक मोढ वंशीय वैश्य थे। पिताका नाम चाचिंग अथवा चाच और माताका नाम पाहिणी देवी था। बालकका नाम चांगदेव रखा। माता पाहिणी ओर मामा नेमिनाथ दोनों ही जैन थे। आचार्य हेमचंद्र बहुत बड़े आचार्य थे अतः उनकी माताको उच्चासन मिलता था। सम्भव है, माताने बाद में जैन धर्मकी दीक्षा ले ली हो। बालक चांगदेव जब गर्भ में था तब माताने आर्श्र्वजनक स्वप्न देखे थे। ईसपर आचार्य देवचंद्र गुरुने स्वप्नका विश्लेषण करते कहा सुलक्षण सम्पन्न पुत्र होगा जो दीक्षा लेगा। जैन सिद्धांतका सर्वत्र प्रचार प्रसार करेगा।
बाल्यकालसे चांगदेव दीक्षाके लिये दढ था। खम्भांत में जैन संघकी अनुमतिसे उदयन मंत्रीके सहयोगसे नव वर्षकी आयुमें दीक्षा संस्कार विक्रम सवंत ११५४में माघ शुक्ल चतुर्दशी शनिवारको हुआ। और उनका नाम सोमचंद्र रखा गया। शरीर सुवर्ण समान तेजस्वी एवं चंद्रमा समान सुंदर था। ईसलिये वे हेमचंद्र कहलाये।
अल्पआयुमे शास्त्रोमें तथा व्यावहारिक ज्ञानमें निपुण हो गये। २१ वर्षकी अवस्थामें समस्त शास्त्रोकां मंथन कर ज्ञान वृद्धि की। नागपुर (नागौर, मारवाड) के धनद व्यापारीने विक्रम सवंत ११६६में सूरिपद प्रदान महोत्सव सम्पन्न किया। आचार्यने साहित्य और समाज सेवा करना आरम्भ किया। प्रभावकचरित अनुसार माता पाहिणी देवीने जैन धर्मकी दीक्षा ग्रहण की। अभयदेवसूरिके शिष्य प्रकांड गुरुश्री देवचंद्रसूरि हेमचंद्रके दीक्षागुरु, शिक्षागुरु या विद्यागुरु थे।
वृद्वावस्थामें हेमचंद्रसूरीको को लूता रोग लग गया। अष्टांगयोगाभ्यास द्वारा उन्होंने रोग नष्ट किया। ८४ वर्षकी अवस्थामें अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया आरम्भ की। विक्रम सवंत १२२९मे महापंडितोकी प्रथम पक्ड्तिके पंडितने दैहिक लीला समाप्त की। समाधिस्थल शत्रुज्जंय महातीर्थ पहाड स्थित है। प्रभावकचरितके अनुसार राजा कुमारपालको आचार्यका वियोग असह्य रहा और छः मास पश्चात स्वर्ग सिधार गया।
हेमचंद्र अद्वितीय विद्वान थे। साहित्यके सम्पूर्ण इतिहासमें किसी दुसरे ग्रंथकारकी इतनी अधिक और विविध विषयोंकी रचनाएं उपलब्ध नहीं है। व्याकरण शास्त्रके ईतिहासमें हेमचंद्रका नाम सुवर्णाक्षरोंसे लिखा जाता है। संस्कृत शब्दानुशासनके अन्तिम रचयिता है। इनके साथ उत्तरभारतमें संस्कृतके उत्कृष्ट मौलिक ग्रंथोका रचनाकाल समाप्त हो जाता है।
गुजराती कविता है, 'हेम प्रदीप प्रगटावी सरस्वतीनो सार्थक्य कीधुं निज नामनुं सिद्धराजे'। अर्थात सिद्धराजने सरस्वतीका हेम प्रदीप जलाकर (सुवर्ण दीपक अथवा हेमचंद्र) अपना 'सिद्ध'नाम सार्थक कर दिया। हेमचंद्रका कहना था स्वतंत्र आत्माके आश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष है
हेमचंद्रके काव्य-ग्रंथ
आचार्य हेमचंद्रने अनेक विषयोंपर विविध प्रकारके काव्य रचे है। अश्वघोषके समान हेमचंद्र सोद्देष्य काव्य रचनामें विश्वास रखते थे। इनका काव्य 'काव्यमानन्दाय' न होकर 'काव्यम् धर्मप्रचारय' है। अश्वघोष और कालिदासके सहज एवं सरल शैली जैसी शैली नहीं थी किन्तु उनकी कविताओमें ह्रदय और मस्तिष्कका अपूर्व मिश्रण था। आचार्य हेमचंद्रके काव्यमें संस्कृत बृहत्त्रयीके पाण्डित्यपूर्ण चमत्कृत शैली है, भट्ठिके अनुसार व्याकरणका विवेचन, अश्वघोषके अनुसार धर्मप्रचार एवं कलहणके अनुसार इतिहास है। आचार्य हेमचंद्रका पण्डित कवियोंमें मूर्धन्य स्थान है। 'त्रिषष्ढिशलाकापुरुश चरित' एक पुराण काव्य है। संस्कृतस्तोत्र साहित्यमें 'वीतरागस्तोत्र' का महत्वपूर्ण स्थान है। व्याकरण, इतिहास और काव्यका तीनोंका वाहक द्ववाश्रय काव्य अपूर्व है। इस धर्माचार्यको साहित्य-सम्राट कहनेमें अत्युक्ति नहीं है।
व्याकरण ग्रंथ
पाणिनीने संस्कृत व्याकरणमें शाकटायन, शौनक, स्फोटायन, आपिशलि का उल्लेख किया। पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में शोधन कात्यायन और भाष्यकर पतञ्जलि किया। पुनरुद्वार भोजदेवके 'सरस्वती कंठाभरण' में हुआ।
हेमचंद्रकी व्याकरण रचनाएं
आचार्य हेमचंद्रने समस्त व्याकरण वांड्मयका अनुशीलन कर 'शब्दानुशासन' एवं अन्य व्याकरण ग्रंथोकी रचना की। पूर्ववतो आचार्योंके ग्रंथोका सम्यक अध्ययन कर सर्वांड्ग परिपूर्ण उपयोगी एवं सरल व्याकरणकी ‍रचना कर संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओंको पूर्णतया अनुशासित किया है।
हेमचंद्रने 'सिद्वहेम' नामक नूतन पंचांग व्याकरण तैयार किया। इस व्याकरण ग्रंथका श्वेतछत्र सुषोभीत दो चामरके साथ चल समारोह हाथी पर निकाला गया। ३०० लेखकोंने ३०० प्रतियाँ 'शब्दानुशासन'की लिखकर भिन्न-भिन्न धर्माध्यक्षोंको भेट देने के अतिरिक्त देश-विदेश, ईरान, सीलोन, नेपाल भेजी गयी। २० प्रतियाँ काश्मीरके सरस्वती भाण्डारमें पहुंची। ज्ञानपंचमी (कार्तिक सुदि पंचमी) के दिन परीक्षा ली जाती थी।
आचार्य हेमचंद्र संस्कृत के अन्तिम महावैयाकरण थे। अपभ्रंश साहित्यकी प्राचीन समृद्वि के सम्बधमें विद्वान उन पधोंके स्तोत्रकी खोजमें लग गये। १८००० श्लोक प्रमाण बृहदवृत्ति पर भाष्य कतिचिद दुर्गापदख्या व्याख्या लिखी गयी। इस भाष्यकी हस्त लिखित प्रति बर्लिन में है।
अलंकार ग्रंथ
हेमचंद्रके अलंकार ग्रंथ
काव्यानुशासन ने उन्हें उच्चकोटि के काव्यशास्त्रकारों की श्रेणी में प्रतिष्ठित किया। पूर्वाचार्यो से बहुत कछ लेकर परवर्ती विचारकों को चिंतन के लिए विपुल सामग्री प्रदान की। काव्यानुशासन का - सूत्र, व्याख्या और सोदाहरण वृत्ति ऐसे तीन प्रमुख भाग है। सूत्रो की व्याख्या करने वाली व्याख्या 'अलंकारचूडामणि' नाम प्रचलित है। और स्पष्ट करने के लिए 'विवेक' नामक वृति लिखी गयी।
'काव्यानुशासन' ८ अध्यायों में विभाजित २०८ सूत्रो में काव्यशास्त्र के सारे विषयों का प्रतिपादन किया गया है। 'अलंकारचूडामणि' में ८०७ उदाहरण प्रस्तुत है तथा 'विवेक'में ८२५ उदाहरण प्रस्तुत है। ५० कवियों के तथा ८१ ग्रंथो के नामोका उल्लेख है।
'काव्यानुशासन' का विवेचन : सम्पूर्ण एवमं सर्वोत्कृष्ठ पाठ्यपुस्तक
काव्यानुशासन प्रायः संग्रह ग्रंथ है। राजशेखरके 'काव्यमीमांसा', मम्मटके 'काव्यप्रकाश', आनंदवर्धन के 'ध्वन्यालोक', अभिनव गुप्तके 'लोचन' से पर्याप्त मात्रामें सामग्री ग्रहण की है।
मौलिकता के विषयमें हेमचंद्रका अपना स्वतंत्र मत है। हेमचंद्र मतसे कोई भी ग्रंथकार नयी चीज नहीं लिखता। यद्यपि मम्मटका 'काव्यप्रकाश' के साथ हेमचंद्रका 'काव्यानुशासन' का बहुत साम्य है। पर्याप्त स्थानों पर हेमचंद्राचार्यने मम्मटका विरोध किया है। हेमचंद्राचार्यके अनुसार आनंद, यश एव कान्तातुल्य उपदेश ही काव्यके प्रयोजन हो सकते हैं तथा अर्थलाभ, व्यवहार ज्ञान एवं अनिष्ट निवृत्ति हेमचंद्रके मतानुसार काव्यके प्रयोजन नहीं है।
'काव्यानुशासन से काव्यशास्र के पाठकों कों समजने में सुलभता, सुगमता होती है। मम्मटका 'काव्यप्रकाश' विस्तृत है, सुव्यवस्थित है, सुगम नहीं है। अगणित टीकाएं होने पर भी मम्मटका 'काव्यप्रकाश' दुर्गम रह जाता है। 'काव्यानुशासन' में इस दुर्गमता को 'अलंकारचुडामणि' एवं 'विवेक' के द्वारा सुगमता में परिणत किया गया है।
'काव्यानुशासन' में स्पष्ट लिखते हैं कि वे अपना मत निर्धारण अभिनवगुप्त एवं भरत के आधार पर कर रहे हैं। सचमुच अन्य ग्रंथो-ग्रंथकारो के उद्वरण प्रस्तुत करते हेमचंद्र अपना स्वयं का स्वतंत्र मत, शैली, दष्टिकोणसे मौलिक है। ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के नाम से संस्कृत-साहित्य, इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। सभी स्तर के पाठक के लिए सर्वोत्कृष्ठ पाठ्यपुस्तक है। विशेष ज्ञानवृद्वि का अवसर दिया है। अतः आचार्य हेमचंद्र के 'काव्यानुशासन' का अध्ययन करने के पश्चात फिर दुसरा ग्रंथ पढने की जरुरत नहीं रहती। सम्पूर्ण काव्य-शास्त्र पर सुव्यवस्थित तथा सुरचित प्रबंध है।
कोशग्रंथ
संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया। अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है। देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं। 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है। 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है। इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है। दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह' (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है। एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है। अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है। प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।
दार्शनिक एवं धार्मिक ग्रंथ
प्रमाणमीमांसा
सामान्यतः जैन और हिन्दु धर्म में कोई विशेष अंतर नहीं है। जैन धर्म वैदिक कर्म - काण्ड के प्रतीबंध एवं उस के हिंसा संबंधी विधानोकों स्वीकार नहीं करता। आचार्य हेमचंद्र के दर्शन ग्रंथ 'प्रमाणमीमांसा' का विशिष्ट स्थान है। हेमचंद्र के अंतिम अपूर्ण ग्रंथ प्रमाणमीमांसा का प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी द्वारा संपादान हुआ। सूत्र शैली का ग्रंथ कणाद या अक्षपाद के समान है। दुर्भाग्य से इस समय तक १०० सूत्र ही उपलब्ध है। संभवतः वृद्वावस्था में इस ग्रंथ को पूर्ण नहीं कर सके अथवा शेष भाग काल कवलित होने का कलंक शिष्यों को लगा। हेमचंद्र के अनुसार प्रमाण दो ही है। प्रत्यक्ष ओर परोक्ष। जो एक दुसरे से बिलकुल अलग है। स्वतंत्र आत्मा के आश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। आचार्य के ये विचार तत्वचिंतन में मौलिक है। हेमचंद्र ने तर्क शास्त्रमें कथा का एक वादात्मक रूप ही स्थिर किया। जिस में छ्ल आदि किसी भी कपट-व्यवहार का प्रयोग वर्ज्य है। हेमचंद्र के अनुसार इंद्रियजन्म, मतिज्ञान और परमार्थिक केवलज्ञान में सत्य की मात्रा में अंतर है, योग्यता अथवा गुण में नहीं। प्रमाणमीमांसा से संपूर्ण भारतीय दर्शन शास्त्र के गौरव में वृद्वि हुई।
योगशास्त्र
ईसकी शैली पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार ही है। किंतु विषय और वर्णन क्रम में मौलिकता एवं भिन्नता है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है। योगशास्त्र जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है। वह अध्यात्मोपनिषद् है। इसके अंतर्गत मदिरा दोष, मांस दोष, नवनीत भक्षण दोष, मधु दोष, उदुम्बर दोष, रात्रि भोजन दोष का वर्णन है। अंतिम १२ वें प्रकाश के प्रारम्भ में श्रुत समुद्र और गुरु के मुखसे जो कुछ मैं ने जाना है उसका वर्णन कर चुका हुं, अब निर्मल अनुभव सिद्व तत्वको प्रकाशित करता हुं ऐसा निदेश कर के विक्षिप्त, यातायात, इन चित-भेंदो के स्वरुपका कथन करते बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरुप कहा गया है।
* सदाचार ही ईश्र्वर प्रणिधान नियम है।
* निर्मल चित ही मनुष्य का धर्म है।
* संवेदन ही मोक्ष है जिसके सामने सुख कुछ नहीं है ऐसा प्रतीत होता है।
संवेदन के लिये पातच्जल योगसूत्र तथा हेमचंद्र योगशास्त्र में पर्याप्त साम्य है। योग से शरीर और मन शुद्व होता है। योग का अर्थ चित्रवृतिका निरोध। मन को सबल बनाने के लिये शरीर सबल बनाना अत्यावश्यक है। योगसूत्र और योगशास्त्र में अत्यंत सात्विक आहार की उपादेयता बतलाकर अभक्ष्य भक्षणका निषेध किया गया है। आचार्य हेमचंद्र सब से प्रथम 'नमो अरि हन्ताणं' से राग -द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले को नमस्कार कहा है। योगसूत्र तथा योगशास्त्र पास-पास है। संसार के सभी वाद, संप्रदाय, मत, द्दष्टिराग के परिणाम है। द्दष्टिराग के कारण अशांति और दु:ख है। अतः विश्वशांति के लिये, द्दष्टिराग उच्छेदन के लिये हेमचंद्रका योगशास्त्र आज भी अत्यंत उपादेय ग्रंथ है।
भारतीय साहित्यको हेमचंद्रकी देन
संस्कृत सहित्यका आरंभ सुदूर वैदिक काल से होता है। जैन साहित्य अधिकांशत: प्राकृत में था। 'चतुर्धपूर्व' और 'एकादश अंग' ग्रंथ संस्कृत में थे। ये पूर्व ग्रंथ लुप्त हो गये। जैन धर्म श्रमण प्रधान है। आचरण प्रमुख है।
अन्य साहित्य
संस्कृत में उमास्वाति का 'तत्वार्थाधिगमसूत्र', सिद्धसेन दिवाकर का 'न्यायावतार', नेमिचंद्र का 'द्रव्यसंग्रह', मल्लिसेन की 'स्याद्धादमंजरी', प्रभाचंद्र का 'प्रमेय कमलमातंड', आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ है।
उमास्वाति से जैन देह में दर्शानात्मा ने प्रवेश किया। कुछ ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित हुई जो आगे कुंदकुंद, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानंद, हरिभद्र, यशोविजय, आदि रूप में विकशीत होती गयी।
साहित्य में आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र का स्थान
हेमचंद्र ने अपने योगशास्त्र से सभी को गृहस्थ जीवन में आत्मसाधना की प्रेरणा दी। पुरुषार्थ से दूर रहने वाले को पुरुषार्थ की प्रेरणा दी। इनका मूल मंत्र स्वावलंबन है। वीर और द्दृढ चित पुरुषोंके लिये उनका धर्म है।
हेमचंद्राचार्य के ग्रंथो ने संस्कृत एवं धार्मिक साहित्य में भक्ति के साथ श्रवण धर्म तथा साधना युक्त आचार धर्म का प्रचार किया। समाज में से निद्रालस्य को भगाकर जाग्रति उत्पन्न की। सात्विक जीवन से दीर्घायु पाने के उपाय बताये। सदाचार से आदर्श नागरिक निर्माणकर समाज को सुव्यवस्थित करनेमें आचर्य हेमचंद्र ने अपूर्व योगदान किया।
आचार्य हेमचंद्रने तर्कशुद्ध, तर्कसिद्ध एवम भक्तियुक्त सरस वाणी के द्वारा ज्ञान चेतना का विकास किया और परमोच्च चोटी पर पहुंचा दिया। पुरानी जडता को जडमूल से उखाड फेंक दिया। आत्मविश्वास का संचार किया। आचार्य के ग्रंथो के कारण जैन धर्म गुजरात में द्दृढमूल हुआ। भारत में सर्वत्र, विशेषतः मध्य प्रदेश में जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में उन के ग्रंथोने अभूतपूर्व योगदान किया। इस द्दृष्टि से जैन धर्म के साहित्य में आचार्य हेमचंद्र के ग्रंथो का स्थान अमूल्य है।
हेम प्रशस्ति
सदा ह्रदि वहेम श्री हेमसूरे: सरस्वतीम।
सुवत्या शब्दारत्नानि ताम्रपर्णा जितायया ॥
ज्ञान के अगाध सागर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र को पार पाना अत्यंत दुष्कर है। जिज्ञासु को कार्य करने में थोडी सी प्रेरणा मिलने पर सब अपने आपको कृतार्थ समजेगें। (सोमेश्वर भट्ट की 'कीर्ति कौमिदी' में)
हेमचंद्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि थे। राजाकुमारपालके सामने किसी मत्सरीने कहा 'जैन प्रत्यक्ष देव सूर्यको नहीं मानते', ईस पर हेमचंद्रने उत्तर दिया। जैन साधु ही सूर्यनारायणको अपने ह्र्दयमें रखते हैं। सुर्यास्त होते ही जैन साधु अन्नजल त्याग देते हैं। और ऐसा कौन करता है?
गणितज्ञ के रूप में हेमचन्द्र सूरी
आचार्य हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हेमचन्द्र सूरी (१०८९-११७२) भारतीय गणितज्ञ तथा जैन विद्वान थे। इन्होने हेमचन्द्र श्रेणी का लिखित उल्लेख किया था जिसे बाद में फिबोनाची श्रेणी के नाम से जाना गया।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

Devikot jain mandir pratishtha song

20. देवीकोटनगर मंडन
श्री ऋषभ जिनेन्द्र स्तवन 
(सोजितरो सिरदार दामांरो लोभीयो, ए देशी) 
ऋषभ जिनेश्वर देव नमुं त्रिभुवन धणी हो लाल, नमुं त्रिभुवन धणी हो लाल। 
नाभि नरेश्वर नंदन उदयो दिनमणि हो लाल, के उदयो.।। 
श्री मरुदेवा मात सुतन गुण आगरु हो लाल, सुतन गुण.। 
सोवनवण शरीर सदा सुख सागरु हो लाल, सदा सुख.।।1।। 
वृषभ लांछन प्रभु पाय विराजे सुंदरु हो लाल, विराजो। 
पांचसे धनुष प्रमाण शरीर सुहकरु हो लाल, शरीर.।। 
युगला धर्म निवारक तारक जगतनो हो लाल, तारक.। 
उत्तम धर्म प्रकाशक नाशक दुरित नो हो लाल, नाशक.।।2।। 
लोक उचित व्यवहार सकल वरताय ने हो लाल, सकल.। 
मुक्ति मंदिर प्रभु पहोता कर्म खपायने हो लाल, कर्म.।। 
प्रभु मूर्ति सुखकार विराजे जगत में हो लाल, विराजे.। 
ते देखी बहु भव्य मिथ्यामति गमें हो लाल, मिथ्या.।।3।। 
जिनप्रतिमा जिन सारखी भाखी सूत्र में हो लाल, भाखी.। 
तेहने सेवत भविजन भव में नहीं भमे हो लाल, भव में.।। 
देवीकोट नगर श्रीसंघे जुक्तिशुं हो लाल, श्रीसंघे.। 
बिंब भराया चैत्य कराया भक्तिशुं हो लाल, कराया.।।4।। 
गच्छनायक जिनचंद पटोधर दीपता हो लाल, पटोधर.। 
श्रीजिनहर्ष सूरींद कुमति मत जीपता हो लाल, कुमति.।। 
वरस अढारे साठे शुदि वैशाख में हो लाल, शुदि.। 
करीय प्रतिष्ठा सातम दिन उच्छरंग में हो लाल, दिन.।।5।। 
मूलनायक श्री ऋषभ जिनेश्वर स्थापिया हो लाल, जिनेश्वर.। 
संघ सकल घर हर्ष महोत्सव व्यापिया हो लाल, महोत्सव.।। 
वरत्या जय जयकार घरोघर अति घणा हो लाल, घरोघर.। 
दूर टल्या दु:ख दंद सकल श्रीसंघ तणा हो लाल, सकल.।।6।। 
प्रभु गुण गातां आतम निर्मल संपजे हो लाल, निर्मल.। 
ध्यातां हृदय मझार के निज कारज सरे हो लाल, निज.।। 
वाचक अमृत धर्म पसाये इम भणे हो लाल, पसाये.। 
शिष्य क्षमाकल्याण सुपाठक शुभ मने हो लाल, सुपाठक.।।7।।
(खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक-3526)
क्षमाकल्याण जी कृति संग्रह भाग 1 से साभार

Upadhyay Sadhu kirti ji rachit जिनकुशलसूरि छन्द

उपाध्याय साधुकीर्ति रचित
जिनकुशलसूरि छन्द 
विलसै ऋद्धि समृद्धि मिली, शुभ योगे पुण्य दशा सफली । 
जिनकुशलसूरि गुरु अतुल बली, मनवांछित आपे दादो रंग रली ।।१।। 
मंगल लील समै विपुला, नवनवा महोच्छव राज्य कला | 
सुपसायै गुरु चढती कला, सुकलीणी पुत्रवती महिला ।।२।। 
सबही दिन थायै सबला, सद्वास कपूर तणा कुरला । 
हय गय रथ पायक बहुला, कल्लोल करे मन्दिर कमला ||३|| 
वीझै चमर निशान घूरे, नर वे दरबार खड़ा पहुरे । 
जय जय कर जोड़ी उचरे, सानिद्ध गुरु सब काज सरे ||४|| 
सरसा भोजन पान सदा, दु:ख रोग दुकाल न होय कदा । 
अविचल उल्लट अंग मुदा, गुरु कूरम दृष्टि प्रसन्न सदा ।।५।।
घम घम मद्दल नाद घुमे, बत्तीसे नाटक रंग रमे । 
प्रगट्यो पुण्य प्रताप हमें, सबला अरियण ते आय नमें ।।६।। 
तन सुख मन सुख चीर तणे, पहिरे बेला उर होय रणे । 
ध्यावो कुशल गुरु एक मनै, जृंंभक सुर मन्दिर भरय धनै ।।७।। 
ततखिन धन खंच्यो आवे, करी श्याम घटा मेह वरसावे ।
तिसियां तोय तुरत पावे, जलदाता त्रिजग सुजस गावै ||८|| 
लहर्या जल कल्लोल करे, प्रवहण भव सायर मज्झ डरे । 
वूडन्ता वाहन जे समरे, ते आपद निश्चय थी उबरे ।।९।। 
खड़ खड़ खड़ग प्रहार वहै, सौदामिनी जिम समशेर सहै । 
कुशल कुशल गुरु नाम कहै, ते क्षेम कुशल रण मज्झ लहै ।।१०।। 
थुंभ सकल परचा पूरे, श्री नागपुरे संकट चूरे । 
मंगलोरे अधिके नूरे, देराउर भय टाले दूरे ।।११।। 
वीरमपुर वाने सुधरे, खंभायतपुर विक्रम नयरे । 
जिनचन्द्र सूरि पाटे पवरे, जसु कीरति मही मंडल पसरे ।।१२।। 
पूरव पश्चिम दक्षिण आगे, उत्तर गुरु दीपे सोभागे । 
दह दिशि जन सेवा मांगे, श्री खरतर गच्छ नी महिमा जागे ।।१३।। 
पुर पट्टन जनपद ठामे, गाईजे कुशल नयर गामे । 
पूजे जे नर हित कामे, ते चक्रवर्ति पदवी पामे ||१४|| 
श्री जिनकुशल सूरि शाखै, सेवक जन ने सुखिया राखै । 
समर्या गुरु दरसण दाखै, श्री 'साधुकीर्ति' पाठक भाखै ।।१५।।

शुक्रवार, 7 जून 2019

Raipur Dadawadi address

छत्तीसगढ़ 

1)श्री जैन दादाबाड़ी,

    ओसवाल लाइन

कार्यालय-जैन बग़ीचा,सदर बाज़ार

राजनांदगाँव (छ.ग.) 491441

PH:07744-224696


2)1.श्री जिन कुशल सूरी जैन दादावाडी ट्रस्ट, 

मालवीय नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)490001

फ़ोन न. 0788-2334387

9425238381


3)श्री जिनकुशलसूरी जैन दादाबाड़ी

M.G.रोड ,रायपुर (छत्तीसगढ़)

पिनकोड. 492001

0771-4001801

बुधवार, 5 जून 2019

Bangalore Jain Temple - Karnataka Jain Temple - Jain places

Bangalore Jain Temple - Karnataka Jain Temple - Jain places


श्री विमलनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर एवं जिनकुशलसूरी जैन दादावाडी,
89/90, Govindapa Road, Basavangudi, bangalore - 560 004, Ph : 080-2242 3548
प्रतिष्ठा : दि. 14.2.2005 , तिथि : माघ सुदि 6 , वि.सं. 2061, प्रतिष्ठाचार्य : मरुधरमणि प.पू. उपाध्यायप्रवर श्री मणिप्रभसागरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sanghvi Sri Parasmalji Bhansali : President, Sanghvi Sri Tejrajji Gulecha : Vice - President

श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर,
Chickpet, Bangalore - 560 053, 080 - 2287 3678 , 4114 0142 , 093412 21541
प्रतिष्ठा दि. 2.2.1920 , तिथि : माघ सुदि 13 , वि. सं. 1976 
प्रतिष्ठाचार्य प.पू. यतिवर्य श्री महेन्द्रसूरीजी 
ट्रस्टीगण Sri Tejrajji Nagori : President, Sri Mohanlalji Marlecha : Vice- President
श्री पार्श्व सुशील तीर्थ धाम 
Surana Nagar, Balagarhalli, Neralur Post, Hosur Road, Bangalore, 080 - 24782 0171, प्रतिष्ठा:दि. 30.11.2008, तिथि : मिगसर सुदि 3, वि.सं. 2065
प्रतिष्ठाचार्य: प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा.
ट्रस्टीगण: Smt. Bhawaridevi Ghewarchandji Surana,
Sha. Dilipji Surana
श्री सिद्धाचल स्थूलभद्र धाम तीर्थ,
Pariwaalguda, N.H. 7 , Bangalore - Bellary Highway Road, Devanahalli , Bangalore - 562 110, 08119 - 325 472 , 098457 39358
प्रतिष्ठा : दि. 3.6.2003 , तिथि : जेठ सुदि 3, वि.सं. 2059, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू. आ. चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण : Sri Dilipji Surana : Sangh Rakshak, Sri Indermalji Ranavat : Sangh rakshak
श्री नाकोड़ा अवंति 108 पार्श्वनाथ जैन तीर्थ धाम, National Highway No. 7, Devanhalli, Bangalore - 562 130, 080 - 2768 2226, 
प्रतिष्ठा : दि. 22.4.1999 , तिथि : वैशाख सुदि 7 , वि.सं. 2055
प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा.
ट्रस्टीगण : Sha. Rajubhai S. Kapurchandji, Sha. Prakashchandji Rathod
श्री शंखेश्वर पर्श्वनाथ धरणेंद्र पद्मावती तीर्थ धाम 
Bangalore Mysore Road, VadharaHalli, Ramnagar, Bangalore, Ph. 41470966 , 7271270 , 7271907,
प्रतिष्ठा : दि. 6.12.2009, तिथि : पोष वदी 5 , वि.सं. 2066, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Shantilalji Gadyia : President, Sha. Champaklalji Israni : Vice - Pesident

श्री पार्श्वलब्धि तीर्थ धाम 
Pune Bangalore highway road, Adakimaranhalli, Makali Post, Tumkur Road, Bangalore - 562 123, Ph. 22795833 , 99450 11104
प्रतिष्ठा : दि. 9.5.2001 , तिथि : जेठ वदी 2 , वि.सं. 2057,प्रतिष्ठाचार्य: प.पू. गच्छाधिपति आ. श्री अशोक रत्नसूरीश्वरजी म.सा. एवं प.पू. आ. श्री अमरसेनसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण : Sha. Tejpalji Pukhrajji Pandya : President, Sha. Kantilalji Gambhirmalji Bafana : Secretary 

श्री मुनिसुव्रत स्वामी राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर मंदिर, No. 170, K.S.S. Lane, Avenue Road, Cross, Bangalore - 560002, Ph. 080-4132 3288,
प्रतिष्ठा : दि. 13.2.1995, तिथि: माघ सुदी 13, वि.सं: 2051, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जयंतसेनसूरीश्वरजी म.स., ट्रस्टीगण : Sha. Autmalji Kankaria 

श्री वासुपूज्य स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 38 / 39 , Aubaiya lane , Cottonpet Cross, Akkipet, Bangalore - 560053, Ph. 080 - 22207827, प्रतिष्ठा : दि. 3.5.2006, तिथि : वैशाख सुदि 6,वि.सं. 2062, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री अशोकरत्नसूरीश्वरजी म.सा. एवं पन्यास प्रवर श्री अरुणविजयजी म.सा., 
ट्रस्टीगण : Sha. Kiranrajji Lunkad : President, Sha. Prakashmalji : Vice - President

श्री सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर, दादावाडी एवं मोतियाजी मंदिर
25 , Bomsandra Industrial Area, Third Phase , Bangalore - 560099, Ph. 2783 1124 , 2783 3524, प्रतिष्ठा :दि. 23.11.2008, तिथि: मिगसर वदि 11, वि.सं.2065, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : शा. राजेन्द्रकुमारजी तिलोकचन्दजी बोथरा परिवार व्दारा निर्मित एवं संचालित

श्री सुविधिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर एवं दादावाड़ी
Classic Arcade, Behind Minakshi Temple, Banargatha Road, Bangalore - 560 076, Ph. 080-2297 3652,
प्रतिष्ठा : दि. 23.11.2008, तिथि: मिगसर वदि 11, वि.सं.2065, प्रतिष्ठाचार्य :प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण :शा. राजेन्द्रकुमारजी तिलोकचन्दजी बोथरा परिवार व्दारा निर्मित एवं संचालित
श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन श्वेतम्बर मंदिर 
No. 273, Jain Temple Road, Cantonment, Bangalore - 560051
Ph: 2556 0125
प्रतिष्ठा: दि. 26.2.1955, तिथि : फागण सुदि 4, वि. सं. 2011, प्रतिष्ठाचार्य: प.पू.श्री लक्ष्मणसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण: Sha. Sumermalji Gulecha : President
श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 4, Dasapaa Lane, Chickpet Cross, Bangalore - 560053, Ph:080 - 2291 0742
प्रतिष्ठा: दि. 18.5.1972, तिथि : वैशाख सुदि 6, वि. सं. 2028, ट्रस्टीगण: sha. Jayantilalji Nagardasji Shah : President 
श्री महावीर स्वामी श्वेतम्बर 
no.199, 3rd main, 5th cross, chamrajpet, Bangalore- 560 018, प्रतिष्ठा : वि.सं. 2057, तिथि: वैशाख सुदि 7, दि: 30.4.2001, प्रतिष्ठाचार्य
: प.पू.आ. श्री नित्योदयसागर सूरीशवरजी म.सा, एवं प,पू.आ. श्री चन्द्राननसागरजी म.सा, ट्रस्टीगण: Sha dudhamalji balar
श्री शांतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 262 - 263 , 1st Main Road, Manidhari Enclave , Elbert Victor Road, Chamrajpet, Bangalore - 560018, Ph: 94485 20504, 098440 37282, 098442 51115, प्रतिष्ठा : वि.सं. 2065, तिथि : मगसर वदि 3, दि: 15.11.2008, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा.,
ट्रस्टीगण: M/s. Mahima Developers -trustee
श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
1st main Road, T. Dasarhalli, bangalore - 560057, Ph: 90088 85591 , 2839 1838
प्रतिष्ठा: दि. 3.6.1995, तिथि : जेठ सुदि 5, वि.सं. 2059, प्रतिष्ठाचार्य :प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Bhawarlalji Giriya 
श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
4th main road, Gandhinagar, Bangalore - 560009, Ph: 2220 0036 , 4124 2510 
प्रतिष्ठा: दि. 28.05.1954, तिथि : वैशाख वदि 11, वि. सं. 2010, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री लक्ष्मणसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Madhukarbhaiji Shah-President , Sha. Maheshbhaiji M. Parekh-Vice - President 
श्री जीरावला पर्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 1 / 1 , 3rd main Road, 8th Cross, Ganganagar, Bangalore - 560032, Ph: 2343 3137, प्रतिष्ठा: दि. 14.4.2000, तिथि : 11, वि.सं. 2056, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., 
Trustee: Sha. Subhash kumarji Meetalalji Bhandari
श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 16 , Comfort Enclave , 1st Main Road, 1st Cross, Ganganagar , Bangalore - 560032, Ph: 080 - 2343 9523 , 93412 22502, 
प्रतिष्ठा : दि. 30.11.2003, , तिथि : मिगसर सुदि 7, वि.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री चंद्रयशसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण: Sha. Shantilalji Surana - President 
श्री धर्मनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
9th Main Road, 30th Cross, 4th Block, Jaynagar, Bangalore - 560011, Ph: 080- 2454 8492 , 2891 8359, प्रतिष्ठा : दि. 5.12.1982, तिथि : मिगसर वदि , वि. सं. 2038, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण :Sha. Uttamchandji Bhandari-
President, Sha. Ratanchandji Bhandari - Vice - President
श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 17, Subhramaniyam Temple Street, Kumarapark West, Bangalore - 560020, PH: 080 - 2225 0117 , 4151 8669, प्रतिष्ठा :दि. 1.5.2009, तिथि : वैशाख सुद 7, वि.सं. 2065, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. गच्छाधिपति आ. श्री अशोकरत्नसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण :Sha. Kevalchandji Pirgal
श्री कुंथुनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 39 , 3rd Main, 1st Cross, Near Udaynagar Tin Factory, Behind K.R. Puram Railway Station, Bangalore 560016, Ph: 080 - 2851 0411, प्रतिष्ठा : दि. 16.12.2004, तिथि : मगसर सुदि 5, वि.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Parasmalji Lodha : President

श्री नेमीनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
Jain Global Campus, Jaksandra Post (Kanakpura Taluk), Ramnagar District , Bangalore, Ph : 080 - 2757 7777, प्रतिष्ठा :दि. 13.12.2010, 
प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sri Chainrajji Chajjed 

श्री मुनिसुव्रत स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर ट्रस्ट 
No. 12, Racecourse Road, Madhavnagar, Kalptaru kalpvruksh Apartment, Bangalore - 560001, Ph :080 - 2225 5274, प्रतिष्ठा : दि. 11.5.1989, तिथि : वैशाख सुदि 6, वि.सं. 2045, प्रतिष्ठाचार्य ; प.पू. आ. भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण :Sha. Chaganlalji Saremalji Rathod : President
श्री वासुपूज्य जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 47 / 1 , Vishwanath Rao Road, Madhavnagar, Bangalore - 560001, Ph : 080 - 225 0117 , 4151 8669, प्रतिष्ठा : दि. 19.1.1991, तिथि : माघ सुद 3, वि.सं. 2047, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Kevalchandji Pirgal श्री सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
7th Cross, Magadi Road, Bangalore, Ph : 080 - 2338 8931, प्रतिष्ठा ; दि. 14.12.1985, तिथि : मिगसर सुद 3, वि.सं. 2042, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री भद्रगुप्तसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण ; Sha. Pratap singhji Mehta : President
श्री सीमंधर स्वामी राजेन्द्रसूरी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 8 , S.V. Lane, Mamulpet, Bangalore - 560053, Ph : 080 - 2237 0403, प्रतिष्ठा : दि. 13.2.1995, तिथि : माघ शुक्ला 13, वि.सं. 2051, प्रतिष्ठाचार्य: प.पू. आ. श्री जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. , ट्रस्टीगण : Sha. Mangilalji Durgani -
President, Sha. Tejrajji Kuhad - Vice - President
श्री सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 18 , Mother Saheb lane, Sumatinath Appartment,Manavarthi pet Bangalore - 560053, Ph: 080 - 4122 2443 , 4115 1106
प्रतिष्ठा : दि. 28.11.2003, तिथि : मिगसर सुदि 5, वि.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री नित्यानंदसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Babulalji Genmalji Dani 

श्री अजितनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 5 , Makal Basavana Temple Street , Nagarathpet Cross, Bangalore - 560002, Ph : 080 - 4115 9992 , 2221 5980, प्रतिष्ठा: दि. 23.5.1993, तिथि : जेठ सुदि 2, वि.सं. 2049, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण : Sha. Khobilalji Ranka - President 
श्री चन्द्रप्रभु नवग्रह जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 101 / 1 , 1st Stage, 5th Cross, Okalipuram, Bangalore - 560021, Ph : 080 - 6570 2879, प्रतिष्ठा दि. 26.1.2004, तिथि : माघ सुदि 5, वि.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Dilipji Surana - President
श्री चन्द्रप्रभ स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 2 , Ausborn Road, Opp. Alsoor Lake , Behind Lavanya Talkies, Bangalore - 560042, ph :93412 20390, प्रतिष्ठा: दि. 20.1.2011, तिथि : माघ वदि 1, वि.सं. 2067, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Sanghvi Inderchandji Bohra : President, Sha. Jaychandji Chuttar : Vice - President 
श्री चतुर्मुखी सुपार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Sri Chaturmukhi Suparshwanath Jain Shwetambar Mandir 
Address S.V. Raju Gowda road, Palace Guthalli , Bangalore, Ph : 99027 87794, 98440 22603, प्रतिष्ठा : दि. 16.2.2001, तिथि : माघ सु्दि 13, वि.सं. 2067
प्रतिष्ठाचार्य प.पू.आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Kishorekumarji Parekh - President 

श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 331 , 3rd Block, 58 th Cross, Bhashyam Circle, Rajajinagar, Bangalore - 560010, Ph : 080 - 2340 9769 , प्रतिष्ठा: दि. 3.12.1993, तिथि : कार्तिक वद 4 , वि.सं. 2050, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ.श्री स्थूलसूरीश्वरजी म.सा. 
ट्रस्टीगण : Sri Jayantibhaiji Shah - President
श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 984, 2nd Main Road, 4th Block, Rajajinagar, Bangalore - 560010, Ph : 080 - 3250 9775
प्रतिष्ठा : दि. 20.1.2011, तिथि : माघ वदि 1, वि.सं. 2067, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री अशोकरत्नसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Mohanlalji Khivensara - President, Sha. Milapchandji Chodhary - Vice - President 
श्री सांचा सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Sri Ranka Park Jain Sangh, Ranka Park Apartment, Lalbagh Road, Near Richmond Circle, Bangalore - 560027, Ph : 9342278918, प्रतिष्ठा : दि. 3.7.2011, तिथि : आषाढ सुदि 2, वि.सं. 2067, प्रतिष्ठाचार्य: प.पू.आ. श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा. , ट्रस्टीगण : Sha. Dineshji Ranka - President, Sha. Amritlalji Talesara - Vice - President

श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर , दादावाडी एवं भोमियाजी मंदिर
No. 370 , 7 th Cross, Lakshmi Road, Shantinagar, Bangalore - 560027, Ph : 080 - 4171 3538, प्रतिष्ठा : दि. 19.2.2006, तिथि : फागुण वदि 6 , वि.सं. 2062, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. उपाध्‍याय प्रवर श्री मणिप्रभसागरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Trilokchandji Bothara - Chairman, Sha. Phulchandji Karbawala -President
श्री कुंथुनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 421, 4th Main Road, Srinagar, Bangalore - 560050, Ph : 080 - 2652 7997, प्रतिष्ठा : दि. 4.3.2000, तिथि : फागण वदि 13, वि.सं. 2056, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Kundanmalji Kothari : President, Sha. Pukhrajji Katariya - Vice - President 
श्री विमल शान्तिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर
3rd Cross, L.N. Puram (Srirampuram) , Bangalore - 560021, Ph : 080 - 2332 4513 प्रतिष्ठादि. 4.2.2001, तिथि : माघ सुदि 11 , वि.सं. 2057 , वि.सं. 2057, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण ; Sha. Mulchandji Barlota - President Sha. Viradichandji Aaccha - Vice - President
श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर गृह मंदिर 
1st Floor , Rang Rao Road, Shankarpuram, Bangalore - 560004, Ph: 9844070645, 9986846379, प्रतिष्ठा : दि. 7.9.2007, ट्रस्टीगण : Sha. Udayrajji Mandot

श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 137 / 2 , 2nd Main Road, 3rd Block, Thyagaraja nagar , Bangalore - 560028, Ph : 080 - 2667 2379, प्रतिष्ठा : दि. 25.4.1996, तिथि : वैशाख सुदि 6, वि.सं. 2052, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Dongarmalji Parmar : Vice - President 

श्री अजितनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Viviani road, Tannery Road Bangalore - 560005, Ph : 080 - 2546 3027, प्रतिष्ठा ; दि. 2.12.2004, तिथि : मिगसर वदि 5, वि.सं. 2061, प्रतिष्ठाचार्य ; प.पू. आ. श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण ; Sha. Tejrajji Katariya : President 

श्री विमलनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Address : No. 8 , 4th main Road, Industrial Town, Basaveshwarnagar , Banagalore - 560044, Ph : 080 - 3291 8255, प्रतिष्ठा : दि. 2.1.2004 , तिथि : कार्तिक वदि 5 , वि.सं. 2061, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री जिनेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Dineshkumaji K. Shah
श्री सीमंधर शान्तिसूरी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 10 / 2 - 10 / 3 , Vasavi Temple Road, V.V. Puram , Bangalore - 560004, Ph : 080 - 4150 6842, प्रतिष्ठा ; दि. 24.1.2005, तिथि : पोष सुदि 14, वि.सं. 2061, प्रतिष्ठाचार्य : गच्छाधिपति प.पू. आ. श्री अशोकरत्नसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Shantilalji Gadiya - President , Sha. Champaklalji Imrani - Vice - president 
श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 18 , Jain temple Road, V.V. Puram , Bangalore - 560004, Ph :080 - 2650 8208, प्रतिष्ठा : दि. 21.5.1975, तिथि : वैशाख सुदि 14, वि.सं. 2034, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री विक्रमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Amichandji Gebiramji Solanki 
श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 330 , Pipeline Road, 6th Main Road, Vijaynagar, Bangalore - 560040, Ph : 080 - 2340 7516
प्रतिष्ठा : दि. 31.5.2006, तिथि -जेठ सुदि 4, वि.सं. 2063, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री कल्पयशसूरीश्वरजी म.सा. , प.पू. आ. श्री अमितयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Rajkumarji Munot : Trustee
श्री सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Near Bus Stand, Yelahanka , Bangalore - 560064, Ph : 080 - 2846 0149, प्रतिष्ठा : दि.25.4.1973, तिथि : वैशाख सुदि 3, वि.सं. 2049, प्रतिष्ठाचार्य प.पू.आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा. , ट्रस्टीगण : Sha. Sualchandji Vinayakia - President
श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
No. 25 / 26 , 1st Main Road, R.P.C. layout , Club Road, Vijaynagar , Bangalore - 560040, Ph : 080 - 2335 2782, प्रतिष्ठा : दि. 21.12.2005, तिथि : मगसर सुदि 5, वि.सं. 2062, प्रतिष्ठाचार्य प.पू. आ.श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Narendrasinghji Samar - President, Sha. Ramesh kumarji Bhandari - Vice - President 
श्री संभवनाथ जैन श्वेताम्बर गृह मंदिर 
No. 17 , 2nd Cross, 8th Main Road, Vasanthnagar , Bangalore - 560002, Ph: 080 - 2226 4975, प्रतिष्ठा : दि. 15.5.2004, तिथि : जेठ वदि 12, वि.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य प.पू. आ. श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Champalalji Parasmalji Porwal
श्री सुमतिनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
67 th Cross, Jain Temple Street, Kamala Nehru Extension, Yashwantpur, Bangalore - 560022, Ph : 080 - 2337 2343, प्रतिष्ठा : दि.4.7.1991, तिथि : आषाढ वदि 7, वि.सं. 2048, प्रतिष्ठाचार्य प.पू. आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Mulchandji Katariya : President 
श्री वासुपूज्य स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर
No. 3, Masjid Street, Yelagundpalyam, Austin Town , Bangalore- 560047, Ph : 080 - 2554 2018 , 2536 1546, प्रतिष्ठा : दि.26.11.1980, तिथि : मिगसर सुदि 5, वि.सं. 2037, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण Sha. Parasmalji Chajed- President, Sha. Parasmalji Soni - Vice - President 
श्री शान्तिनाथ जैन श्वेताम्बर गृह मंदिर 
No. 70 , Ambika market, D.K. Lane, Chickpet Cross, Bangalore- 560053, ph : 080 - 2226 1824, प्रतिष्ठा : दि. 9.9.1971, तिथि : श्रावण सुदि 6, वि.सं. 2062, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आ. श्री पूर्णानंदसूरीश्वरजी म.सा.
श्री वासुपूज्य स्वामी गृह मंदिर 
No. 7 , 3rd Cross, Kilari Road, Bangalore - 560053, प्रतिष्ठा : दि. 6.12.1989, तिथि : पोष वदि 5, वि.सं.प्रतिष्ठा : वर्ष : 1994, तिथि: फागण वदि 3, वि.सं. 2050, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Kheemrajji Barlota, 2045, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ. श्री स्थूलभद्रसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Naharmalji Mulchandji Mandoth
श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ स्थूलभद्र धाम जैन श्वेताम्बर मंदिर 
14th Cross, Mmalleswaram, Bangalore - 56000, Ph :93433 64641, प्रतिष्ठाचार्य प.पू. आ. श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Madhu karbhai
श्री मुनिसुव्रत स्वामी गृह मंदिर 
No. 1 , Anchepet, R.T. Street, Bangalore - 560053
080 - 2228 1928

श्री सीमंधर स्वामी जैन श्वेताम्बर गृह मंदिर एवं दादावाडी
286 , Kaveri Upper Place Orchid, 17th Cross, 8th Main, Sadashivnagar, Bangalore - 560080, Ph : 080 - 2361 1273 , 2361 2851, प्रतिष्ठा : वर्ष : 1992, तिथि: आषाढ वद 11, वि.सं. 2049, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू.आ.श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. 

श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Symboisis Jainam Appartment, No. 66 , Ratna Vilas Road, Basavangudi Bangalore - 560004, Ph : 99162 16507, प्रतिष्ठा : दि. 29.1.2012, तिथि : माघ सुद 6, वि.सं. 2068
प्रतिष्ठाचार्य प.पू. गच्छाधिपति आचार्य श्री अशोकरत्नसूरीश्वरजी म.सा., ट्रस्टीगण : Sha. Tejrajji Malani
श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Address Kanakpura Road, Bangalore, Contact 080 - 2843 2887, प्रतिष्ठा :दि. 11.6.2004, तिथि : आषाढ वदि 9, वी.सं. 2060, प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आचार्य श्री चन्द्रयशसूरीश्वरजी म.सा. 

श्री वासुपूज्य स्वामी जैन श्वेताम्बर मंदिर 
Address : Anand nagar, Hebbal, Bangalore 
Contact : 98450 10103
प्रतिष्ठा : दि. 17.1.2013, तिथि : पोष सुदि 6, वि.सं. 2069
प्रतिष्ठाचार्य : प.पू. आचर्य श्री जिनोत्तमसूरीश्वरजी म.सा. 

श्री वसुपूज्य जैन श्वेताम्बर मन्दिर
Address Y.R.city jain temple street Arsikere -573103 (bangalore), Contact : 08174-232755, प्रतिष्ठा : 18.6.1975, प्रतिष्ठाचार्य :प.पू. आ.श्री भन्द्रकरसूरी्श्वरजी म.सा, ट्रस्टीगण :शा. विजयजी, माणेकचन्दजी शाह

श्री मुनीसुव्रत स्वामी जैन श्वे. मंदिर 
Address : नं 1, काक्स टाऊन, बेंगलोर - 560 005, 
No. 1, Coxtown Bangalore - 560 005 
Contact : 080-25485159
श्री महावीर स्वामी जैन श्वे. मन्दिर , 
Address : एन. आर. कॉलोनी, त्यागराजनगर बेंगलोर - 560 028 
N.R. Colony, Tyagrajnagar Bangalore - 560 028
Contact : 080-26672379
श्री जीनकुशल सुरी जैन दादावाड़ी ट्रस्ट 
Address : नं 89-90, गोविन्दप्पा रोड़, बसवनगुडी बेंगलोर - 560 004 
No. 89-90, Govindappa Road, Baswangudi Bangalore - 560 004 
श्री महावीर स्वामी जैन श्वे. मंदिर 
Address : मे. मंगलचन्द किरणराज, आर. टी. रोड़ बेंगलोर - 560 053
M. Mangalchand Kiranraj, R. T. Road, Bangalore - 560053
श्री सीमंदर स्वामी राजेन्द्रसुरि जैन ज्ञान मंदिर 
Address : एस. वी. लेन, चिकपेट क्रास, बेंगलोर - 560 053, 
S. V. Lane, Chickpet Cross, Bangalore - 560 053
श्री पार्श्वनाथ श्वे. मंदिर ट्रस्ट 
Address : चौथा मैन रोड़, गांधीनगर बेंगलोर - 560009 
4th main Road, Gandhinagar Bangalore - 560009
Contact : 080-22200036
श्री नाकोड़ा अवन्ती 108 पार्श्वनाथ जैन तीर्थ विक्रम स्थुलभद्र विहार 
Address : एन. हेच 7, देवनहल्ली, बेंगलोर N.H. Lane, Devanhalli Bangalore 
Contact : 7682226
श्री महावीर स्वामी जैन श्वे. मंदिर 
Address : मे. कोठारी टेक्सटाईल्स, भैरवेश्वरा कॉमप लेक्स टुमकुर रोड़, टी. दासरहल्ली, बेंगलोर - 57 
M. Kothari Textiles, Bhairaveshwara Complex, tumkur Road, T. Dasarhalli, Bangalore -57
Contact : 080-28319838 पी. पी.