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शुक्रवार, 15 मई 2020

सकल तीर्थ वंदना sakal tirth vandna

सकल तीर्थ वंदना

रचनाकार- आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरिजी म.

तीर्थ वंदना भावे सार। श्री जिनराज करे भव पार।
जिन प्रतिमा जिन सम भवि जाण। वंदो सेवो भाव प्रमाण ॥१॥
प्रथम स्वर्ग में चैत्य नमो।। लाख बत्तीस नित्य प्रणमो।
लाख अट्ठाइस बारह जाण। दूजे तीजे चैत्य प्रमाण ।।२।।
चौथे पंचम लख अड़ चार। छठे सुर पचास हजार।
सप्तम चालीस सहस प्रासाद। वंदन से मिटता अवसाद ॥३॥
अष्टम स्वर्गे छः हजार। नव दशमे मंदिर शत चार।
ग्यारहवें बारहवें जाण। शत त्रय मंदिर पावन ठाण ।।४।।
नव ग्रैवेयक शतत्रि अठार। पांच अनुत्तर चैत्य विहार।
सब मिल अधिक चौरासी लाख। सहस सत्ताणुं तेइस आंक ।।५।।
सौ योजन लंबाई जान। पंचाशत चौडाई प्रमाण।
बहत्तर योजन ऊँचा कह्या। इक शत अस्सी सरदह्या॥६॥
सभा सहित इक चैत्य प्रमाण। इम फरमावे केवल नाण।
इक शत बावन क्रोड़ जुहार। चौराणु लख चुमाली हजार ॥७॥
शत सत षष्ठि उपर जाण। नमो नमो जगदीश महान्।
भवनपति में मंदिर कोड़। सत लख बहोतर नम कर जोड़ ॥८।।
एक एक जिनदेवल मांय। शत इक अस्सी बिंब समाय।
तेरह शत नव्वासी कोड़। साठ लाख वलि देऊँ जोड़ ।।९।।
तिर्यक् लोके देवल जान। पैंतीस सय सतरह परमाण। 
चार लाख बावीश हजार। दो सय अस्सी प्रतिमा सार ॥१०॥ 
ऋषभानन चंद्रानन नमो। वारिषेण वर्द्धमान नमो। 
इक सय सत्तर जिन भगवान। महाविदेह उत्कृष्टा जान ।।११।। 
नौ करोड छे केवल नाण। नेवू अरब छे साधु महान्। 
जघन्ये जानो श्री जिन बीस। कोटि दोय केवली जगदीश ।।१२।। 
बीस कोटि विहरे मुनिराय। वंदुं प्रणमुं शीष नमाय। 
अडछप्पनसत्ताणु हजार। चार सौ छियांसी चैत्य प्रकार ॥१३।। 
तीन लोक में मंदिर जान। निशदिन वंदूँ जिन गुणखान। 
नौ पच्चीस तिरेपन लाख। अठाइस चउ सय अठासी आंक ॥१४।। 
शाश्वत इतनी प्रतिमा जान। श्रद्धा से वंदो भगवान। 
अष्टापद वंदू चौबीस। गिरि सम्मेतशिखर जिन वीश ॥१५।। 
सिद्धाचल गिरि आदिनाथ। शंखेश्वर केसरियो साथ। 
नेमि जिनेश्वर गढ़ गिरनार। अंतरिक्ष नाकोड़ा सार ॥१६॥ 
नमो जीराउली पारसनाथ। जैसलमेर लोदरवा नाथ। 
तीर्थ ओसिया वीर जिणंद। तारंगा में विजया नंद ॥१७॥ 
सत्यपुरे जीवित महावीर। वंदन से पावो भव तीर। 
जल मंदिर श्री पावापुर। भेट्यां दु:ख सब जावे दूर ।॥१८॥ 
जहाज मंदिर में शांतिनाथ। पास अवन्ति पुर खंभात।
गाम गाम में जिन भगवान्। पूजो प्रतिमा धर श्रद्धान ।।१९।। 
नमो सीमंधर श्री भगवान्। विंशति प्रभुवर विहरमान। 
सिद्ध अनंत नमो धर भाव। आणो हृदये हर्ष उच्छाव ॥२०॥ 
तीर्थ जुहारूं भाव प्रकार। तीन काल वंदन सुखकार। 
वंदन हो युत मन वच काय। खरतर कान्ति मणि गुण गाय ॥२१।।

सोमवार, 4 मई 2020

Udhroj tirth


Udharoj tirth
.

लगभग 2200 वर्ष प्राचीन, राजा सम्प्रति कालीन, श्री अजितनाथ स्वामी प्रभु, उधरोज़ तीर्थ, गुजरात।
अर्हन्तमजितं विश्व कमलाकर भास्करम्।
अम्लान केवलादर्श सक्रान्त जगतं स्तुवे।।

जिस तरह सूर्य से कमल-वन आनन्दित होता है, उसी तरह जिस से यह सारा जगत् आनन्दित है, जिसके केवल क्षान रूपी निर्मल दर्पण में सारे लोकों का प्रतिबिम्ब पङता है, उस अजितनाथ प्रभु की स्तुति करते है।

Shiddhachal STUTI सिद्धाचल स्तुति

शत्रुंजय गिरी नमिये ऋषभदेव पुण्डरीक।
शुभ तप नी महिमा सुणी गुरुमुख निर्भीक।
शुद्ध मन उपवासे विधि शु चैत्यवंदनीक।
करिये जिन आगल टाली वचन अलीक।।

नेमिनाथ जिन चैत्यवंदन

श्री नेमिनाथ जिन चैत्यवंदन



प्रहसम प्रणमो नेमिनाथ, जिनवर जग जयवंत,
यादव कुल अवतंस हंस, उत्तम गुणवन्त।।1।।
समुद्र विजय शिवा देवी, जास मति सहज उदार,
सुन्दर श्याम शरीर ज्योति, सोहे सुखकार।।2।।
गढ़ गिरनारे जिण लह्यो ए, अमृतपद अभिराम,
तास क्षमा कल्याण मुनि, अहनिशि करे प्रणाम ।।3।।
(खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक- 3545)

शान्ति जिन चैत्यवंदन

श्री शान्ति जिन चैत्यवंदन

shantinath prabhu Hastinapur

सोलमा जिनवर शान्तिनाथ, सेवो शिरनामी,
कंचन वरण शरीर कांति, अतिशय अभिरामी।।।।।
अचिरा अंगज विश्वसेन, नरपति कुलचंद,
मृग लंछन धर पद कमल, सेवे सुर नर वृन्द ॥2।॥
जगमां अमृत जेहवी ए, जास अखंडित आण,
एक मनें आराधतां, लहिए कोडी कल्याण ॥। 3॥
(खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक- 3601)
क्षमाकल्याण कृति संग्रह [ भाग-१]/ 31

सिद्धाचलजी तीर्थ का चैत्यवंदन

श्री सिद्धाचलजी तीर्थ का चैत्यवंदन

siddhachal, palitana chaityavandn

जय जय नाभि नरिन्द नन्द, सिद्धाचल मंडण,
जय जय प्रथम जिणंद चन्द, भव दुःख विहण्डण।।।।।
जय जय साधु सुरिंद वृंद, वंदिय परमेसर,
जय जय जगदानन्द कन्द, श्री रिषभ जिणेसर ।।2।।
अमृतसम जिन धर्मनों ए, दायक जगमें जाण,
तुझ पद पंकज प्रीतिधर, निशदिन नमत कल्याण 13।।
खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक- 3520)

Lyrics Aankh mari ughade to Shankheshwar


shankheshwar
आंख मारी उघडे तो शंखेश्वर देखुं
मंदिर मां बैठा मारा पारसनाथ देखुं।
पारसनाथ देखुं तो मन हरखातुं
धन्य धन्य जीवन मारुं कृपा एवि लेखुं।।1।।
अंतर नी आंखों थी दर्शन करतां
नयणा अमारा निशदिन ठरता
तारी रे मूरतिए मारू मन ललचाणुं
धन्य धन्य जीवन मारुं कृपा एवि लेखुं।।2।।

Bhavobhav thi rah jou

Lyrics:
Bhavobhav thi raah jou,
virti ni waate jawa, Bhavobhav thi raah jou,
tara vesh ne paamwa, Tujne nirkahi dil maaru aa dhadki rahyu, 
Tuj waani thi manadu maru mohi gayu, Shamnama sadhu vesh ma mujne joya karu, 
Har pal rajoharan medwava zankhya karu, 

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

जंबुद्वीप में 34 तीर्थंकर घातकी खंड में 68 तीर्थंकर अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 तीर्थंकर

जंबुद्वीप में उत्कृष्ट 34 तीर्थंकर होते है।  

                  तीर्थंकर कर्मभूमि में ही जन्म लेते है। जिनके अलग अलग विभागों को विजय कहते है। ऐसे एक विजय में एक काल में एक ही तीर्थंकर होते है। 

                  जंबुद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में 32 विजय है। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र में 1 - 1 विजय है। ऐसे सभी मिलकर 34 विजय है। जंबुद्वीप से घातकी खंड क्षेत्र में दो गुना होने से वहाँ 68 विजय है। अर्धपुष्करावर्त खंड घातकी खंड जितना होने से वहाँ भी 68 विजय है। 

                    ऐसे जंबुद्वीप में 34 , घातकी खंड में 68 और अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 विजय है। जिस काल में सभी क्षेत्र में तीर्थंकर विद्यमान होते है , वो काल में उनकी उत्कृष्ट संख्या 170 होती है। श्री अजितनाथ भगवान के शासन में उत्कृष्ट 170 तीर्थंकर विचरते थे।  

उत्कृष्ट तीर्थंकर

जंबुद्वीप में 34 तीर्थंकर 
घातकी खंड में 68 तीर्थंकर
अर्धपुष्करावर्त खंड में 68 तीर्थंकर

Ayodhya ki katha

ऋषभकुमार का राज्याभिषेक – एक दिन सभी युगलिए एकत्रित होकर हाथ ऊँचे करके नाभिकुलकर से पुकार करने लगे- “अन्याय हुआ, अन्याय हुआ।“ अब तो अकार्य करने वाले लोग हकार, मकार और धिक्कार नाम की सुंदर नीतियों की भी नहीं मानते।“ यह सुनकर नाभिकुलकर ने युगलियों है कहा- “इस अकार्य से तुंम्हारी रक्षा ऋषभ करेगा। अत: अब उसकी आज्ञानुसार चलो।“ उस समय नाभिकुलकर की आज्ञा से राज्य की स्थिति प्रशस्त करने हेतु तीन ज्ञानधारी प्रभु ने उन्हें शिक्षा दी कि “मर्यादाभंग करने वाले अपराधी को अगर कोई रोक सकता है, तो राजा ही। अत: उसे ऊँचे आसन पर बिठाकर उसका जल से अभिषेक करना चाहिए।“ प्रभु की बात सुनकर उनके कहने के अनुसार सभी युगलिए पत्तों के दोनें बनाकर उसमें जल लेने के लिए जलाशय में गये। उस समय इंद्र का आसन चलायमान हुआ। उससे अवधिज्ञान से जाना कि भगवान के राज्याभिषेक का समय हो गया है। अत: इंद्रमहाराज वहां आये। उसने प्रभु को रत्नजटित सिंहासन पर बिठाकर राज्याभिषेक किया। मुकुट आदि आभूषणों से उन्हें सुसज्जित किया। इधर हाथ जोड़कर और कमलपत्र के दोनों में अपने मन के समान स्वच्छ जल लेकर युगलिए भी पहुंचे। उस समय अभिषित्त एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित मुकुट सिर पर धारण किये हुए सिंहासनासीन प्रभु ऐसे प्रतीत हो रहे थे। मानो उदयाचल पर्वत पर सूर्यं विराजमान हो। शुभ्र वस्त्रों से वे आकाश में शरदऋतु के मेघ के से सुशोभित हो रहे थे। प्रभु के दोनों और शरद्ऋतु के नवनीत एवं हंस के समानं मनोहर उज्जल चामर ढुल रहे थे।
विनीता नगरी का निर्माण- अभिषेक किये हुए प्रभु को देखकर युगलिये आश्चर्य में पड़ गये। उन विनीत युगलियों ने यह सोचकर कि ऐसे अलंकृत भगवान् के मस्तक पर जल डालना योग्य नहीं है अत: प्रभु के चरणकमलों पर जल डाल दिया। यह देखकर इंद्रमहाराज ने खुश होकर नौ योजन चौडी बारह योजन लंबी विनीता नगरी बनाने की कुबेरदेव को आज्ञा दी। इंद्र वहाँ है अपने स्थान पर लोट आये। उधर कुबेर ने भी माणिक्य- मुकुट के समान रत्नमय और धरती पर अजेय विनीता नगरी बसायी, जो बाद में अयोध्या नाम है प्रसिद्ध हुई।

Bhagvan mahaveer story

साहस परीक्षा
जब महावीर कुछ कम आठ वर्ष के थे, अपने समवयस्क राजपुत्रों के साथ
क्रीड़ा करते हुए उद्यान में ग़ए और संकुली नामक खेल खेलने लगे। उधर शकेन्द्र
ने देव सभा में कहा कि अभी भरत क्षेत्र में बालक वर्द्धमान ऐसे धीर, वीर और
साहसी हैं कि कोई देव-दानव भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता। इन्द्र की बात
का और तो सभी देवों ने आदर किया, परन्तु एक देव ने विश्वास नहीं किया। वह
परीक्षा करने के लिए चला और उद्यान में जा पहुँचा। उस समय बालकों में वृक्ष को
स्पर्श करने की होड़ लगी हुई थी। देव ने भयानक सर्प का रूप बनाया और उस
वृक्ष के तने पर लिपट गया। फिर फन फैलाकर फुफ्कार करने लगा। एक भयानक
विषधर को आक्रमण करने में तत्पर देखकर, डर के मारे अन्य सभी बालक भाग
गए। महावीर तो जन्मजात निर्भय थे। उन्होंने साथियों को धैर्य बँधाया और स्वयं
सर्प के निकट जाकर और रस्सी के समान पकड़कर दूर ले जाकर छोड़ दिया।

अब वृक्ष पर चढ़ने की स्पर्धा प्रारम्भ हुई। शर्त यह थी कि विजयी राजपुत्र,
पराजित की पीठ पर सवार होकर, निर्धारित स्थान पर पहुँचे । वह देव भी एक
राजपुत्र का रूप धारण कर उस खेल में सम्मिलित हो गया। महावीर सबसे पहले
वृक्ष के अग्रभाग पर पहुँच गए और अन्य राजकुमार बीच में ही रह गए। देव को तो
पराजित होना ही था, वह सब से नीचे रहा। विजयी महावीर उन पराजित कुमारों
की पीठ पर सवार हुए। अन्त में देव की बारी आई। वह देव हाथ-पाँव भूमि पर
टिका कर घोड़े जैसे हो गया। महावीर उसकी पीठ पर चढ़ कर बैठ गए। देव ने
अपना रूप बढ़ाया। वह बढ़ता ही गया, एक महान पर्वत से भी अधिक ऊँचा उसके
सभी अंग बढ़कर विकराल बन गए । मुँह पाताल जैसा एक महान खड्डा,तक्षक नाग जैसी लपलपाती हुई जिह्वा, मस्तक के बाल पीले और खीले जैसे खड़े हुए, उसकी दाड़े करवत के दाँतों के समान तेज, आँखें अंगारों से भरी हुई
सिगड़ी के समान जाज्वल्यमान और नासिका के छेद पर्वत की गुफा के समान
दिखाई देने लगे। उसकी भृकुटी सर्पिणी के समान थी । वह भयानक रूपधारी देव
बढ़ता ही गया।
उसकी अप्रत्याशित विकरालता देखकर महावीर ने ज्ञानोपयोग लगाया। वे
समझ गए कि यह मनुष्य नहीं, देव है और मेरी परीक्षा के लिए ही मानवपुत्र बनकर
मेरा वाहन बना है। उन्होंने उसकी पीठ पर मुष्टि प्रहार किया, जिससे देव का बढ़ा
हुआ रूप तत्काल वामन जैसा छोटा हो गया। देव को इन्द्र की बात का विश्वास हो
गया। उसने महावीर से क्षमा याचना की और नमस्कार करके चला गया।

भगवान महावीर की विनयशीलता

भगवान महावीर की विनयशीलता

भगवान महावीर जब आठ वर्ष के हो गए, तब उनके माता-पिता ने कलाचार्य
के पास उन्हें पढ़ने के लिए भेजा।
भगवान महावीर की बुद्धि बहुत ही तीव्र थी। विद्याचार्य जी जिस समय भगवान
को पढ़ा रहे थे, उस समय इन्द्र पंडित के रूप में आकर विद्याचार्य से गहन और
तात्विक प्रश्न पूछने लगा। इन्द्र के प्रश्न सुनकर विद्याचार्य अवाक् हो गए। आचार्य
के भावों को जानकर भगवान् ने बड़ी नम्रतापूर्वक अनुमति मांगी कि क्या इन प्रश्नों
का उत्तर मैं दे देँ?
|
शिक्षक की अनुमति प्राप्त कर भगवान महावीर ने इन्द्र के प्रश्नों का उत्तर
सुन्दरता एवं शीघ्रता से दिया, जिसे सुनकर विद्याचार्य जी चकित रह गए ।
तब पंडित रूपधारी शकेन्द्र द्वारा भगवान् के भावी तीर्थंकर होने तथा जन्म
से ही अवधिज्ञानी होने का बोध कराया गया । तब विद्याचार्यजी ने बड़े ही
सम्मानपूर्वक राजकुमार वर्द्धमान को माता-पिता के पास पहुंचा कर कहा कि
आपका बालक तो स्वयं बुद्धिमान है, इसे पढ़ाने की योग्यता मुझ में नहीं है ।
इतने बुद्धिशाली भगवान महावीर ने भी इन्द्र के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए
विद्याचार्यजी से भी आज्ञा मांगी। भगवान् महावीर कितने विनयशील थे।

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

Shravak ke 14 niyam jain

श्रावक के १४ नियम जो हमें रोज़ लेने चाहिये .....
१. सचित्त :- सचित्त अर्थात जिस पदार्थ में जीव राशि है ।
इसमें सचित पदार्थो के सेवन की दैनिक मर्यादा रखी जाती है।जैसे कच्ची हरी सब्जी , कच्चे फल , नमक , कच्चा पानी, कच्चा पूरा धान आदि का सम्पूर्ण त्याग अथवा इतनी संख्या से अधिक उपयोग नही करूँगा ऐसा नियम करना । ( 3, 5 ,7 आदि )

२ . द्रव्य :- खाने – पीने की वस्तु / द्रव्य की प्रतिदिन मर्यादा रखनी है , इसमें पदार्थो की संख्या का निश्चय किया जाता है ।
भिन्न भिन्न नाम व स्वाद वाली वस्तुएं इतनी संख्या से अधिक खाने के काम में नहीं लूँगा ।
जैसे खिचड़ी , रोटी, दाल, शाक, मिठाई, पापड़, चावल आदि की मर्यादा करना । (11, 15, 21 आदि )

३ . विगई :- अभक्ष्य विगई , मदिरा , मांस , शहद और मक्खन इनका सर्वथा त्याग होना ही चाहिए ।
भक्ष्य विगई : - प्रतिदिन तेल घी दूध दही शक्कर / गुड तथा घी या तेल में तली हुयी वस्तु ये छः विगई है ।
इनका यथाशक्ति त्याग करना या रोज कम से कम 1 विगई त्याग करना ।

४. उपानह :- जूता, मोजा, चप्पल, आदि पाँव में पहनने की चीजो की मर्यादा रखें । ( 3, 5 ,7 आदि )

५.तम्बोल :- मुखवास के योग्य पदार्थों , पान, सुपारी, खटाई, इलायची आदि का त्याग करना या दैनिक के लिए परिमाण रखना । ( 3, 5 ,7 आदि )

६. वत्थ :- पहनने, ओढ़ने के वस्त्रों की दैनिक मर्यादा रखना । ( 5 ,10, 15, 20 आदि )
आज में ..... संख्या में वस्त्रों को अपने शरीर पर धारण करूँगा , इससे अधिक वस्त्रों को नहीं पहनूंगा ।

७. कुसुम :- पुष्प, तेल, इत्र, अगरबत्ती आदि सुगंधित पदार्थों का दैनिक मर्यादा रखना । ( 3, 5 ,7 आदि )

८. वाहन :- रिक्शा, स्कूटर, कार, बस, ट्रेन आदि का दैनिक उपयोग या मर्यादा करें । ( 3, 5 ,7 आदि )
९. शयन :- शय्या, आसन, कुर्सी, बिछोना, पलंग आदि का प्रमाण करना ( 5 ,10, 15 आदि )

१०. विलेपन :- केसर, चन्दन, उबटन, साबुन, तेल, क्रीम, पाउडर आदि का प्रमाण करें । ( 3, 5 ,7 आदि )

११. ब्रह्मचर्य :- परस्त्री का सर्वथा त्याग , स्वस्त्री के साथ मर्यादा का संकल्प करें ।

१२. दिशा :- दश दिशाओ में अथवा एक दिशा में इतने कि. मी. से अधिक दूर जाने की सीमा निश्चित करना । (50 या 100 किलोमीटर )

१३. स्नान :- श्रावक प्रतिदिन स्नान, हाथ पैर धोने की, जल की मर्यादा संख्या की मर्यादा रखना । (1 या 2 स्नान, 2 बाल्टी पानी से अधिक का त्याग)

१४.भत्त नियम :- प्रतिदिन अन्न पानी आदि चारो आहारों का तोल रखना । (रात्रिभोजन का त्याग, दिन में 2, 3 बार आदि)

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

MAITRI BHAV NU PAVITRA ZARNU

*👆એક સુંદર ભાવના*

*(મૈત્રી ભાવનું પવિત્ર ઝરણું)*
➖➖➖➖➖➖➖➖➖
*🎧મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*ગુણથી  ભરેલા ગુણીજન  દેખી  હૈયું મારું  નૃત્ય  કરે, એ  સંતોના ચરણ કમળમાં  મુજ જીવનનો અર્ધ્ય  રહે*

*દીન,  ક્રૂર  ને  ધર્મવિહોણાં   દેખી  દિલમાં  દર્દ  રહે, કરુણાભીની   આંખોમાંથી   અશ્રુનો   શુભ  સ્રોત વહે*

*મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*માર્ગ ભૂલેલા જીવન પથિકને માર્ગ  ચીંધવા ઊભો રહું, કરે  ઉપેક્ષા  એ  મારગની  તો  ય  સમતા  ચિત્ત ધરું*

*વીરપ્રભુની ધર્મભાવના  હૈયે   સૌ   માનવ  લાવે, વેરઝેરનાં  પાપ   તજીને   મંગળ   ગીતો   એ  ગાવે*

*મૈત્રીભાવનું  પવિત્ર  ઝરણું   મુજ  હૈયામાં  વહ્યા  કરે, શુભ થાઓ આ સકળ વિશ્વનું એવી ભાવના નિત્ય રહે*

*રચના: શ્રી ચિત્રભાનુ મહારાજ*

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

Tirth Moolnayak

*૦૧) Talaja* Sumtinath prabhu

*૦૨) Taranga* Ajitnath prabhu

*૦૩) Girnar* Neminath prabhu

*૦૪) Mahuva* Jivit mahavir swami

*૦૫) Ghogha* Navkhanda parshvnath prabhu

*૦૬) Prabhas patan* Chandraprabh swami


*૦૭) Mangrol* Navpallav parshvanath

*૦૮) Bharuch* Munisuvratswami

*૦૯) Bhoyani* Mallinathprabhu

*૧૦) Champapuri* Vasupujyaswami

*૧૧) Ranakpur* Rushabhdev prabhu

*૧૨) Mehsana* Simndharswami

*૧૩) Suthari* Dhrutkallol parshvnath prabhu

*૧૪) Bamanvada* Mahavirswami prabhu

*૧૫) Tintoi* Muhri parshvanath prabhu

*૧૬) Rajgruhi* Munisuvratswami

*૧૭) Mahudi* padma prabhu swami

*૧૮) Bhopavar* Shantinath prabhu

*૧૯) Ujjain* Avanti parshvanath

*૨૦) Mandavgadh* Suparshvnath

रविवार, 29 मार्च 2020

BHOMIYA JI CHALISA श्री भोमिया चालीसा

श्री भोमिया चालीसा

श्री भोमिया चालीसा
शैल शिखर सम्मेत के, सांवलिया जिनराज
निशदिन मेरी वंदना, तारण-तरण जहाज दोहा
तीरथ रक्षक देव भोमिया। साथ निभावे देव भोमिया 1
इक कर शस्तर इक कर खप्पर। देव भोमिया सबको सुखकर 2
पुव्व देश के भैरूं कहाते। सुमिरत झटपट दौड़े आते 3
भटके राही पथ पा जाते। जो भैरूं का ध्यान लगाते 4
क्षां क्षीं क्षूं क्षौं नमः भोमिया। सरल सहज है देव भोमिया 5
लेते कुछ ना, सब कुछ देते। देख भगत मुस्काते हेते 6
हेत भरेली नजर सुहानी। बाबा तेरी अजब कहानी ॥7॥
भक्तों पर किरपा है पूरी। इच्छा कोई न रहे अधूरी 8
रिमझिम रिमझिम बरसे सावन। भक्त गृहों का महके आंगन ॥9॥
संकट मेटे कष्ट निवारे। बाबा है सच्चे रखवारे ॥10॥
जो मन से नित जाप करेगा। वैभव-कोष अखंड लहेगा 11
चमत्कार बाबा का भारी। ध्यान जाप करते नर-नारी 12

NAKODA BHAIRAV CHALISA नाकोड़ा भैरव चालीसा

NAKODA BHAIRAV CHALISA
नाकोड़ा भैरव चालीसा
-दोहा-
पार्श्वनाथ भगवान की, मूरत चित्त बसाय।
भैरव चालीसा पढूं, गाता मन हरसायटेर
-चौपाई-
नाकोड़ा भैरव सुखकारी। गुण गाती है दुनिया सारी1
भैरव की महिमा अति भारी। भैरव नाम जपे नर नारी2
जिनवर के हैं आज्ञाकारी। श्रद्धा रखते समकित धारी3
प्रातः उठ जो भैरूँ ध्याता। ऋद्धि-सिद्धि सब संपद् पाता4
भैरूं नाम जपे जो कोई। उस घर में नित मंगल होई5
नाकोड़ा लाखों नर आवे। श्रद्धा से परसाद चढ़ावे6
भैरव-भैरव आन पुकारे। भक्तों के सब कष्ट निवारे7
भैरव दर्शन शक्तिशाली। दर से कोई न जावे खाली8
जो नर नित उठ तुमको ध्यावे। भूत पास आने नहीं पावे9
डाकण छूमंतर हो जावे। दुष्ट देव आड़े नहीं आवे10
दिव्य मणि है मारवाड़ की। मारवाड़ की गोडवाड़ की11॥
कल्पतरू है परतिख भैरूँ । इच्छित देता सबको भैरूं 12
आधि-व्याधि सब दोष मिटावे। सुमिरत भैरूं शांति पावे13
बाहर परदेशे जावे नर। नाम मंत्र भैरूं का लेकर14
चौघड़िया दूषण मिट जावे। काल राहु सब नाठा जावे15
परदेशों में नाम कमावे। धन बोरा में भरकर लावे16
तन में साता मन में साता। जो भैरूँ को नित्य मनाता17
डूंगरवासी काला भैरव। सुखकारक है गोरा भैरव18
जो नर भक्ति से गुण गावे। दिव्य रतन सुख मंगल पावे19
श्रद्धा से जो शीष झुकावे। भैरूँ अमृत रस बरसावे20
मिलजुल सब नर फेरे माला। दौड्या आवे बादल काला21
मेघ झरे ज्यों झरते निर्झर। खुशहाली छावे धरती पर22
अन्न-संपदा भर-भर पावे। चारों ओर सुकाल बनावे23
भैरूँ है सच्चा रखवाला। दुश्मन मित्र बनाने वाला24
देश-देश में भैरूँ गाजे। खूट-खूट में डंका बाजे25
है नहीं अपना जिनके कोई। भैरूँ सहायक उनके होई26
नाभि केन्द्र से तुम्हें बुलावे। भैरूँ झट-पट दौड़े आवे27
भूखे नर की भूख मिटावे। प्यासे नर को नीर पिलावे28
इधर-उधर अब नहीं भटकना। भैरूँ के नित पाँव पकड़ना29
इच्छित संपद् आन मिलेगी। सुख की कलियां नित्य खिलेगी॥30
भैरूँ गण खरतर के देवा। सेवा से पाते नर मेवा31
कीर्तिरत्न की आज्ञा पाते। हुकम हाजिरी सदा बजाते32
ॐ ह्रीं भैरव बं बं भैरव। कष्ट निवारक भोला भैरव33
नैन मूंद धुन रात लगावे। सपने में वो दर्शन पावे34
प्रश्नों के उत्तर झट मिलते। रास्ते के कंटक सब मिटते35
नाकोड़ा भैरव नित ध्यावो। संकट मेटो मंगल पावो36
भैरूँ जपन्ता मालं माला। बुझ जाती दुःखों की ज्वाला37
नित उठ जो चालीसा गावे। धन सुत से घर स्वर्ग बनावे38
भैरू चालीसा पढ़े, मन में श्रद्धा धार।
कष्ट कटे महिमा बढ़े, संपद होत अपार39
"जिनकान्ति" गुरुराज के शिष्य "मणिप्रभ" राय।
भैरव के सानिध्य में, ये चालीसा गाय40
PARSHWANATH NAKODA BHAIRAV CHALISA, NAKODA BHAIRAV CHALISA, JAIN NAKODA BHAIRAV PATH, NAKODA BHAIRAV STOTRA, NAKODA BHAIRAV STOTRA, NAKODA BHAIRAVW CHALISA, NAKODA BHAIRAV 40

DADA GURU EKTISA दादागुरु इकतीसा

दादागुरु इकतीसा

दादागुरु इकतीसा
-दोहा-
श्री गुरुदेव दयाल को, मन में ध्यान लगाय।
अष्ट सिद्धि नव निधि मिले, मन वांछित फल पाय॥
-चौपाई-
श्री गुरु चरण शरण में आयो, देख दरश मन अति सुख पायो,
दत्त नाम दुःख भंजन हारा, बिजली पात्र तले धरनारा1
उपशम रस का कन्द कहावे, जो सुमरे फल निश्चय पावे।
दत्त सम्पत्ति दातार दयालु, निज भक्तन के हैं प्रतिपालु॥2
बावन वीर किये वश भारी, तुम साहिब जग में जयकारी।
जोगणी चौसठ वशकर लीनी, विद्या पोथी प्रकट कीनी3
पांच पीर साधे बलकारी, पंच नदी पंजाब मझारी।
अंधों की आँखें तुम खोली, गुंगों को दे दीनी बोली4
गुरु वल्लभ के पाट विराजो, सूरिन में सूरज सम साजो।
जग में नाम तुम्हारो कहिये, परतिख सुरतरु सम सुख लहिये5
इष्ट देव मेरे गुरु देवा, गुणीजन मुनि जन करते सेवा।
तुम सम और देव नहीं कोई, जो मेरे हितकारक होई6
तुम हो सुर तरु वाँछित दाता, मैं निशदिन तुमरे गुण गाता।
पार-ब्रह्म गुरु हो परमेश्वर, अलख निरंजन तुम जगदीश्वर7
तुम गुरु नाम सदा सुख दाता, जपत पाप कोटि कट जाता।
कृपा तुम्हारी जिन पर होई, दु:ख कष्ट नहीं पावे सोई8
अभयदान दाता सुखकारी, परमातम पूरण ब्रह्मचारी।
महाशक्ति बल बुद्धि-विधाता, मैं नित उठ गुरु तुम्हें मनाता9
तुम्हारी महिमा है अतिभारी, टूटी नाव नयी कर डारी।
देश-देश में थम्भ तुम्हारा, संघ सकल के हो रखवाला10

PARSHWANATH CHALISA श्री पार्श्वनाथ चालीसा (108 नाम गर्भित)



-दोहा-
पार्श्वनाथ प्रणमो सदा, मन में श्रद्धा धार।
मंगलमाल लहो सदा, करो सपन साकार
चालीसा प्रभु पार्श्व का, इक मन से हो जाप।
ऋद्धि-वृद्धि-संपद् लहे, मिटे सकल संताप
चौपाई
तीर्थंकर प्रभु पारस प्यारे। वामानंदन जगत दुलारे1
अश्वसेन आंगन हुलराया। सुर सुरपति ने ठाट रचाया2
पारसमणि है प्रभुवर पारस। गूंजे चिहुं दिशि पारस-पारस3
जय प्रभु पारस जय प्रभु पारस। जय पद्मावती पूजित पारस4
पारस तेरा मुझे सहारा। हाथ पकड़ मैं लहूँ किनारा5
तेरे दर पर जो आता है। झोली अपनी भर जाता है6
कल्पवृक्ष चिंतामणि प्रभुवर। वांछित दाता पार्श्व जिनेश्वर7
तुम हो गौड़ी तुम शंखेश्वर। नवखण्डा भाभा नागेश्वर8
पार्श्व अवन्ति मक्षी स्तंभन। नाकोडा लौद्रव भयभंजन
पारसमणि दोकड़िया चंदा। जीरावला नव सप्त फणिन्दा10

GURU GOUTAM SWAMI EKTISA, श्री गौतम इकतीसा

GURU GOUTAM SWAMI EKTISA, 

श्री गौतम इकतीसा
-दोहा-
गुरु गौतम स्वामी नमो, जपो सदा दिन रात।
गुरु गौतम के नाम से, निशि में होय प्रभात
चौपाई
गुरुवर गौतम लब्धि निधाना। सुमिरत पावत संपत्ति नाना1
वीर प्रभु के शिष्य उदारी। सकल संघ के हैं उपकारी2
चमत्कार संयुत गुरुनामा। जाप जपो नित आठों यामा3
मेरे मन में गौतमस्वामी। रोम रोम में गौतमस्वामी4
नित उठ वंदूं गौतमस्वामी। जय हो जय हो गौतमस्वामी5
श्रमण शिरोमणि गौतमस्वामी। ऊँ ह्रीँ  अहम् गौतमस्वामी6
गौतम नाम अनंत विभूषित। ध्यान धरो निज आतम के हित7
जाप जपत दुःख दिन फिर जावे। दुःख में सुख की बदली आवे8
वीर प्रभु के पहले गणधर। परम लाडले पहले मुनिवर9
गुव्वर की माटी का हीरा। उसे तराशे श्री महावीरा10

MUNISUVRAT SWAMI EKTISA श्री मुनिसुव्रतस्वामी इकतीसा


श्री मुनिसुव्रतस्वामी इकतीसा
-दोहा-
जय-जय मुनिसुव्रत प्रभो, पावन तेरा नाम।
सुमिरन मन से जो करे, वो पावे शिवधाम
मुनिसुव्रत के पाठ से, संकट सब टल जाय।
सुख संपद् के कोष से, घर आंगन भर जाय
मुनिसुव्रत प्रभुवर जयकारी। जाप जपो नित मंगलकारी 1।
जिन पूजा से जिन हो जावे। पूजा पारसमणि कहलावे 2
मुनिसुव्रत प्रभु परगट ज्योति। ज्यों आभूषण चमके मोती 3
अखिल विश्व तेरे गुण गाता। अपना जीवन सरस बनाता 4
मुख से बरसे अमरित धारा। झेले वो नर हो भवपारा 5
जीवन में जो शांति चाहो। तो मुनिसुव्रत प्रभु को ध्यावो 6
कृष्ण वर्ण जिन प्रतिमा सोहे। मुख मुस्कान सदा मन मोहे ॥7॥
सुनि मन महिमा आनंद पावे। मुनिसुव्रत पक्षाल लगावे 8
अमल नीर गंगोदक लावो। मुनिसुव्रत पक्षाल करावो ॥9॥