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सोमवार, 30 सितंबर 2019

गिरनार तीर्थ पर प्रतिष्ठित 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा की प्राचीनता

गिरनार तीर्थ पर प्रतिष्ठित 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा की प्राचीनता 

गत चौवीसी के तीसरे तीर्थंकर सागरप्रभु का जब केवलज्ञान कल्याणक हुआ, तब नरवाहन राजा ने समोवसरण मे सागरप्रभु से पूछा की मेरा मोक्ष कब होगा?? 
तब सागर तीर्थंकर ने बताया कि आवती चौवीसी के "22वे तीर्थंकर नेमिनाथ" के तुम "वरदत्त" नाम से प्रथम शिष्य (गणधर)बनकर मोक्ष पाओगे, 

वैराग्य उत्पन्न होकर नरवाहन राजा का, सागर तीर्थंकर के पास दीक्षा लेकर आयुष्य पुर्ण कर पांचवे देवलोक मे 10सागरोपम की आयु वाला इन्द्र के रूप मे जन्म हुआ l

5वे देवलोक के इन्द्र (नरवाहन राजा) ने देवलोक मे अपने भावि उपकारी नेमिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा बनाई, और अत्यन्त आनंद और भक्ति से उस प्रतिमा की देवलोक मे पूजा भक्ति करने लगा l

फिर प्रत्येक उत्कृष्ट भव पाकर वर्तमान चौविसी के 22वे तीर्थंकर नेमिनाथ के समय मे "पुण्यपाल राजा के रूप मे जन्म लेकर नेमिनाथ के पास दीक्षा लेकर उनके प्रथम गणधर वरदत्त बने l

समोसरण मे तीर्थंकर नेमिनाथ ने नरवाहन राजा का ,इन्द्र बनकर प्रतिमा बनाकर भक्ति करना और फिर कालक्रमे वरदत्त गणधर बनने की बात कही, तब समोवसरण मे दुसरे देवताओ ने कहा कि देवलोक मे उस  प्रतिमा को हम आज भी शाश्वती प्रतिमा समझकर पूजा भक्ति करते है 
चूंकि  देवलोक मे  शाश्वती प्रतिमा ही होती है इसलिये नेमिनाथ भ.ने वह अशाश्वती मूर्ति देवलोक से लाने को कहा, जिसे द्वारका के क्रष्ण राजा ने अपने राजमहेल मे प्रतिष्ठित कर पूजा भक्ति की, द्वारका नगरी विलुप्त होने पर शासन देवी अंबिका (अंबे मां) प्रतिमा को गिरनार की गुफा मे ले जाकर भक्ति करने लगी,
 नेमिनाथ भगवान के निर्वाण के 2000वर्ष बीतने  के बाद रत्नसार श्रावक द्वारा अवधि ज्ञानी  आनंदसुरिजी आचार्य की प्रेरणा से वह मूर्ति अंबिका देवी से पाकर गिरनार के मंदिर मे प्रतिष्ठित कराई गई ,रत्नसारश्रावक द्वारा यह प्रतिमा को प्रतिष्ठित हुए "84,785" वर्ष हुए हैं 

गत चौविसी के तीसरे सागर तीर्थंकर से वर्तमान समय तक श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा ""165735वर्ष- न्यून , (कम) 20कोडाकोडी सागरोपम""वर्ष प्राचीन है l

नंदीश्वर Nandishwar Bandish var dweep dwip

नन्दीश्वर द्वीप   

जम्बूद्वीप से आठवां द्वीप नन्दीश्वर द्वीप है। यह नन्दीश्वर समुद्र से वेष्ठित है। इस द्वीप का मण्डलाकार से विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप में पूर्व दिशा में ठीक बीचोंबीच अंजनगिरि नाम का एक पर्वत है। यह ८४००० योजन विस्तृत और इतना ही ऊंचा समवृत्त-गोल है तथा इन्द्रनील मणि से निर्मित है। इस पर्वत के चारों ओर चार दिशाओं में चार द्रह हैं, इन्हें बावड़ी भी कहते हैं। ये द्रह एक लाख योजन विस्तृत चौकोन हैं। इनकी गहराई एक हजार योजन है। इनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है। ये जलचर जीवों से रहित हैं। इनमें एक हजार उत्सेध योजन प्रमाण विस्तृत कमल खिल रहे हैं। इन वापियों के नाम दिशा क्रम से नन्दा, नन्दावती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा हैं। इन वापियों के चारों तरफ चार वन उद्यान हैं जो कि एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े हैं। ये पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन हैं। इनमें से प्रत्येक वन में वन के नाम से सहित चैत्यवृक्ष हैं। प्रत्येक वापिका के बहुमध्य भाग में दही के समान वर्ण वाले दधिमुख नाम के उत्तम पर्वत हैं। ये पर्वत दश हजार योजन ऊंचे तथा इतने ही योजन विस्तृत गोल हैं। वापियों के दोनों बाह्य कोनों पर रतिकर नाम के पर्वत हैं जो कि सुवर्णमय हैं, एक हजार योजन विस्तृत एवं इतने ही योजन ऊंचे हैं। इस प्रकार पूर्व दिशा संबंधी एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर ऐसे तेरह पर्वत हैं। इन पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मंदिर स्थित हैं।

जैसे यह पूर्व दिशा के तेरह पर्वतों का वर्णन किया है, वैसे ही दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में भी तेरह-तेरह पर्वत हैं। उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। इस तरह कुल मिलाकर १३±१३±१३±१३·५२ जिनमंदिर हैं। जैसे पूर्व दिशा में चार वापियों के क्रम से नंदा आदि नाम हैं, वैसे ही दक्षिण दिशा में अंजनगिरि के चारों ओर जो चार वापियां हैं उनके पूर्वादि क्रम से अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका ये नाम हैं। पश्चिम दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशाओं में क्रम से विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये नाम हैं तथा उत्तर दिशा के अंजनगिरि के चारों दिशागत वापियों के रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नाम हैं।

चौंसठ वन -
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इन सोलह वापिकाओं के प्रत्येक के चार-चार वन होने से १६²४·६४ वन हैं। प्रत्येक वन में सुवर्ण तथा रत्नमय एक-एक प्रासाद हैं। उन पर ध्वजायें फहरा रही हैं। इन प्रासादों की ऊँचाई बासठ योजन, विस्तार इकतीस योजन है तथा लम्बाई भी इकतीस योजन ही है। इन प्रासादों में उत्तम-उत्तम वेदिकायें और गोपुर द्वार हैं। इन में वनखण्डों के नामों से युक्त व्यंतर देव अपने बहुत से परिवार के साथ रहते हैं।

बावन जिनमंदिर-
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इस प्रकार नन्दीश्वर द्वीप में ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर ये ५२ जिनमंदिर हैं। प्रत्येक जिनमंदिर उत्सेध योजन से १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊंचे हैं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भगृह में ५०० धनुष ऊंची पद्मासन जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। इन मंदिरों में नाना प्रकार के मंगलघट, धूपघट, सुवर्णमालायें, मणिमालायें, अष्टमंगल द्रव्य आदि शोभायमान हैं। इन मंदिरों में देवगण जल, गंध, पुष्प, तंदुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादि द्रव्यों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं। ज्योतिषी, वानव्यंतर, भवनवासी और कल्पवासी देवों की देवियाँ इन जिनभवनों में भक्तिपूर्वक नाचती और गाती हैं। बहुत से देवगण भेरी, मर्दल और घन्टा आदि अनेक प्रकार के दिव्य बाजों को बजाते रहते हैं।

आष्टान्हिक पर्व पूजा -
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इस नंदीश्वर द्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक चारों प्रकार के देवगण आते हैं और भक्ति से अखण्ड पूजा करते हैं। उस समय दिव्य विभूति से विभूषित सौधर्म इन्द्र हाथ में श्रीफल-नारियल को लेकर भक्ति से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है। उत्तम रत्नाभरणों से विभूषित ईशान इन्द्र भी उत्तम हाथी पर चढ़कर हाथ में सुपाड़ी फलों के गुच्छे को लिए हुए भक्ति से वहां पहुंचता है। हंस, क्रौंच, चक्रवाक, तोता, मोर, कोयल आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर चढ़कर हाथ में फलों को लेकर सभी इन्द्र स्वर्ग से आते हैं तथा कटक, अंगद, मुकुट एवं हार से संयुक्त और चन्द्रमा के समान धवल चंवर हाथ में लिए हुए अच्युतेन्द्र उत्तम मयूर वाहन पर चढ़कर यहां आता है।[१]

ये जो नाना प्रकार के मयूर, कोयल, तोता आदि वाहन बताये हैं, वे सब आभियोग्य जाति के देव उस-उस प्रकार के वाहन का रूप बना लेते हैं चूंकि वहाँ पशु-पक्षी नहीं हैं। नाना प्रकार की विभूति से सहित, अनेक फल, पुष्पमालाओं को हाथों में लिए हुए और अनेक प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ ज्योतिषी, व्यंतर एवं भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहां आते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव नंदीश्वर द्वीप के दिव्य जिनमंदिरों में आकर नाना प्रकार की स्तुतियों से दिशाओं को मुखरित करते हुए प्रदक्षिणाएं करते हैं।

चतुर्णिकाय देवों की पूजा का क्रम-
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पूर्वान्ह में दो प्रहर तक भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्वदिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर देव पश्चिम दिशा में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूजा करते हैं। पुन: अपरान्ह में दो प्रहर तक कल्पवासी देव दक्षिण में, भवनवासी पश्चिम में, व्यंतरवासी उत्तर में और ज्योतिषी पूर्व में पूजा करते हैं। अनन्तर पूर्व रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी पश्चिम में, भवनवासी उत्तर में, व्यंतर पूर्व में और ज्योतिषी दक्षिण में पूजा करते हैं। तत्पश्चात् पश्चिम रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी उत्तर में, भवनवासी पूर्व में, व्यंतर दक्षिण में और ज्योतिषी पश्चिम में पूजा करते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वान्ह, अपरान्ह, पूर्व रात्रि और पश्चिम रात्रि में दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्तिपूर्वक प्रदक्षिणा क्रम से अपनी-अपनी विभूति के योग्य जिनेन्द्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। वहां के सूर्य, चन्द्रमा अपने-अपने स्थान पर स्थिर हैं अत: वहां रात-दिन का विभाग नहीं है।
पूजाविधि -
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सभी देवेन्द्र आदि मिलकर उन अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं का विधिवत् अभिषेक करते हैं पुन: जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से अष्टविध अर्चा करते हैं। वे देवगण अनेक प्रकार के चंदोवा आदि को बांधकर भी भक्ति से जिनेश्वर अर्चा करते हैं। इन चंदोवा में हार, चंवर और किंकणियों को लटकाते हैं। इस प्रकार चंदोवा, छत्र, चंवर, घण्टा आदि से मन्दिर को सजाते हैं। ये सभी देवगण पूजा के समय गंदल, भेरी, मृदंग, पटह आदि बहुत प्रकार के बाजे भी बजाते हैं।

वहां दिव्य वस्त्राभरणों से सुसज्जित देवकन्यायें विविध प्रकार के नृत्य करती हैं और अन्त में जिनेन्द्र भगवान के चरित्रों का अभिनय करती हैं। सभी देवगण भी मिलकर बहुत प्रकार के रस और भावों से युक्त जिनेन्द्रदेव के चरित्र सम्बन्धी नाटक को करते हैं। इस प्रकार नंदीश्वर द्वीप और नन्दीश्वर पर्व की पूजा का वर्णन हुआ है। यह द्वीप मानुषोत्तर पर्वत से परे हैं अत: यहां मनुष्य नहीं जा सकते हैं केवल देवगण ही वहां जाकर पूजा करते हैं। वहां विद्याधर मनुष्य और चारण ऋद्धिधारी मुनीश्वरगण भी नहीं जा सकते हैं अत: इन पर्वों में यहां भावों से ही पूजा कर भव्यजन पुण्य संचय किया करते हैं।

कुण्डलवर द्वीप एवं रुचकवर द्वीप-
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कुण्डलवर नाम से यह ग्यारहवाँ द्वीप है, इसके ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक कुण्डलवर पर्वत है। इस पर्वत की चारों दिशाओं में एक-एक जिनमन्दिर है अत: वहां चार जिनमन्दिर हैं। ऐसे तेरहवां द्वीप रुचकवर नाम का है। वहां पर भी ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक रुचकवर पर्वत है। उस पर भी चारों दिशाओं में एक-एक जिनमन्दिर होने से वहां के भी जिनमन्दिर चार हैं। इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत से बाहर में नन्दीश्वर के ५२± कुण्डलवर के ४± रुचकवर के ४·६० जिनमन्दिर हैं तथा मनुष्यलोक के मानुषोत्तर पर्वत तक ३९८ जिनमन्दिर हैं। ये सब ३९८±६०·४५८ अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। इस तेरहवें द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में अन्यत्र कहीं भी स्वतन्त्ररूप से अकृत्रिम जिनमन्दिर नहीं हैं। हां, सर्वत्र व्यंतर देव और ज्योतिषी देवों के घरों में अकृत्रिम जिनमन्दिर अवश्य हैं, वे सब गणनातीत हैं। इन सब जिनमन्दिरों को मेरा नमस्कार होवे।

जम्बूद्वीप jambuudwip jambu dwip

जंबूद्वीप:-

A[ प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के चरम ( अंतिम किनारे के) प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श
करते हैं?
[ उ. ] हाँ, गौतम । वे लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं ।

[ प्र. ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के जो प्रदेश लवणसमुद्र का स्पर्श करते हैं, क्या वे जम्बूदीप के ही प्रदेश कहलाते हैं या लवणसमुद्र के प्रदेश कहलाते हैं ?
{ उ.] गौतम ! वे जम्बूद्वीप के ही प्रदेश कहलाते हैं, लवणसमुद्र के नहीं कहलाते । इसी प्रकार
लवणसमुद्र के प्रदेशों की बात है, जो जम्बूद्वीप का स्पर्श करते हैं ।

[ प्र. ] भगवन् ! क्या जम्बूद्वीप के जीव मरकर लवणसमुद्र में उत्पन्न होते हैं ?
[ उ. ] गौतम ! कतिपय उत्पन्न होते हैं, कतिपय उत्पन्न नहीं होते इसी प्रकार लवणसमुद् के जीवो
के जम्बूद्वीप में उत्पन्न होने के विषय में जानना चाहिए।

 (१) खण्ड, (२) योजन, (३) वर्ष, ( ४) पर्वत (५) कूट, (६) तीर्थ, ( ७) श्रेणियाँ, (८)
विजय, (९) द्रह, तथा (१०) नदियाँ-इनका प्रस्तुत सूत्र में वर्णन है, जिनकी यह संग्राहिका गाया है।

[ प्र. १] भगवन् ! (एक लाख योजन विस्तार वाले) जम्बूदीप के (526/6/19 योजन विस्तृत) भरत क्षेत्र के प्रमाण जितने-भरत क्षेत्र के बराबर खण्ड किये जाएँ तो कितने खण्ड होते हैं ?
[ उ. ] गौतम ! खण्डगणित के अनुसार वे एक सौ नब्बे होते हैं ।
[ प्र. २ ] भगवन् ! योजनगणित के अनुसार जम्बूद्वीप का कितना प्रमाण है ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप का क्षेत्रफल-प्रमाण (७,९०,५६,९४, १५०) सातअरब नव्बे करोड़
छप्पन लाख चौरानवे हजार एक सौ पचास योजन है ।

[ प्र. ३ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्ष-क्षेत्र हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में सात वर्ष-क्षेत्र हैं- (१ ) भरत, ( २ ) ऐरावत, (३) हैमवत, ( ४)
हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यकवर्ष, तथा (७) महाविदेह।
[ प्र. ४ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत कितने वर्षधर पर्वत, कितने मन्दर पर्वत, कितने चित्र
कूट पर्वत, कितने विचित्र कूट पर्वत, कितने वमक पर्वत, कितने काञ्यनक पर्वत, कितने वक्षस्कार
पर्वत, कितने दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा कितने वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं ?
[ उ. ] गौतम !जम्बूद्वीप के अन्तर्गत छह वर्षधर पर्वत, एक मन्दर पर्वत, एक चित्र कूट पर्वत,
एक विचित्र कूट पर्वत, दो यमक पर्वत, दो सौ काञ्चनक पर्वत, बीस वक्षस्कार पर्वत, चौतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वत तथा चार वृत्त वैताढ्य पर्वत हैं । यों जम्बूद्वीप में पर्वतों की कुल संख्या ६ + १ + १ + १ + २ + २०० + २० + ३४ + ४=२६९ (दो सौ उनहत्तर) हैं।

[ प्र. ५] भगवन् ! जम्बूद्वीप में कितने वर्षधरकूट, कितने वक्षस्कारकूट, कितने वैताज्यकूट तथा
कितने मन्दरकूट हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में छप्पन वर्षधर कूट, छियानदे वक्षस्कार कूट, तीन सौ छह वैताब्य कूट
तथा नौ मन्दर कूट बतलाये हैं। इस प्रकार ये सब मिलाकर कुल ५६ + ९६ + ३०६ + ९
४६७ कूट हैं।
[ प्र. ६ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूदीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं-(१) मागध तीर्थ, ( २ ) वरदाम
तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ।
[पर.] भगवन् ! जम्बूद्वीप  के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में कितने तीर्थ हैं ?
[ उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत ऐरवत क्षेत्र में तीन तीर्थ हैं- (9) मागध तीर्थ, ( २) वरदाम
तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ ।
[ प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक एक चक्रवर्तिविजय में कितने-कितने
तीर्थ हैं?
[उ. ] गौतम !  जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाविदेह क्षेत्र में एक- एक चक्रवर्तिविजय में तीन- तीन तीर्थ
हैं-(१) मागध तीर्थ, (२) वरदाम तीर्थ, तथा (३) प्रभास तीर्थ ।
यों जम्बूदीप के चौंतीस क्षेत्रों में कुल मिलाकर ३४ x३=१०२ (एक सौ दो) तीर्थ हैं।
[प्र. ७] भगवन् ! जम्बूदीप के अन्तर्गत विद्याधर श्रेणियाँ तथा आभियोगिक श्रेणियाँ
कितनी-कितनी हैं?
[ उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप में अड़सठ विद्याधर श्रेणियां तथा अड़सठ आभियोगिक श्रेणियाँ हैं (प्रत्येक दीर्घ वैताळ्य पर्वत पर दो-दो)। इस प्रकार कुल मिलाकर जम्बूद्वीप में ६८ + ६८=१३६ (एक सौ छत्तीस) श्रेणियाँ हैं l

[ प्र. ८] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चक्रवर्तिविजय, राजधानियाँ, तिमित्र गुफाएँ, खण्डप्रपात
गुफाएँ, कृत्तमालक देव, नृत्तमालक देव तथा ऋषभकूट कितने-कितने हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौंतीस चक्रवर्तिविजय ( १ भरत, १ ऐरावत, ३२ महाविदेह
विजय), चौंतीस राजधानियाँ, चौंतीस तिमिस्र्र गुफाएँ, चौंतीस खण्डप्रपात गुफाएँ, चौतीस कृत्मालक देव, चौंतीस नृत्तमालक देव तथा चौंतीस ऋषभकूट हैं ।

[प्र. ९] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत महाद्रह कितने हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत सोलह महाद्रह हैं।

[. १०] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत वर्षधर पर्वतों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं और
कुण्डों से कितनी महानदियाँ निकलती हैं ?
[उ. ] गौतम ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत चौदह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से निकलती हैं तथा छिहत्तर महानदियाँ कुण्डों से निकलती हैं । कुल मिलाकर जम्बूदीप में १४ + ७६=९० (नब्बे) महा नदिया हैं।

[ प्र. ११ ] भगवन् ! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरत क्षेत्र तथा ऐरवत क्षेत्र में कितनी महानदियाँ हैं?
[उ. ] गौतम ! चार महानदियाँ हैं- (9) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रक्ता, तथा (४) रक्तवती।
एक-एक महानदी में चौदह-चौदह हजार नदियाँ मिलती हैं उनसे आपूर्ण होकर वे पूर्वी एवं पश्चमी
लवणसमुद्र में मिलती हैं भरतक्षेत्र में गंगा महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा सिन्धु महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। ऐरवत क्षेत्र में रक्ता महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में तथा रक्तवती महानदी पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है यों जम्बूदीप के अन्तर्गत भरत तथा ऐरवत क्षेत्र में कुल १४,००० x४ =५६,००० (छप्पन हजार) नदियों होती हैं ।

ललितजी मुथलिया

कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य जी

आचार्य हेमचन्द्र (1145-1229) महान गुरु, समाज-सुधारक, धर्माचार्य, गणितज्ञ एवं अद्भुत प्रतिभाशाली मनीषी थे। भारतीय चिंतन, साहित्य और साधना के क्षेत्रमें उनका नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है। साहित्य, दर्शन, योग, व्याकरण, काव्यशास्त्र, वाड्मयके सभी अंड्गो पर नवीन साहित्यकी सृष्टि तथा नये पंथको आलोकित किया। संस्कृत एवं प्राकृत पर उनका समान अधिकार था।
संस्कृत के मध्यकालीन कोशकारों में हेमचंद्र का नाम विशेष महत्व रखता है। वे महापंडित थे और 'कालिकालसर्वज्ञ' कहे जाते थे। वे कवि थे, काव्यशास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्रमर्मज्ञ थे, जैनधर्म और दर्शन के प्रकांड विद्वान् थे, टीकाकार थे और महान कोशकार भी थे। वे जहाँ एक ओर नानाशास्त्रपारंगत आचार्य थे वहीं दूसरी ओर नाना भाषाओं के मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार एवं अनेकभाषाकोशकार भी थे।
समस्त गुर्जरभूमिको अहिंसामय बना दिया। आचार्य हेमचंद्र को पाकर गुजरात अज्ञान, धार्मिक रुढियों एवं अंधविश्र्वासों से मुक्त हो कीर्ति का कैलास एवं धर्मका महान केन्द्र बन गया। अनुकूल परिस्थिति में कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र सर्वजनहिताय एवं सर्वापदेशाय पृथ्वी पर अवतरित हुए। १२वीं शताब्दी में पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, वलभी, उज्जयिनी, काशी इत्यादि समृद्धिशाली नगरों की उदात्त स्वर्णिम परम्परामें गुजरात के अणहिलपुर ने भी गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया।
जीवनवृत तथा रचनाएं
संस्कृत कवियोंका जीवनचरित्र लिखना कठिन समस्या है। सौभाग्यकी बात है कि आचार्य हेमचंद्रके विषयमें यत्र-तत्र पर्याप्त तथ्य उपलब्ध है। प्रसिद्ध राजा सिद्धराज जयसिंह एवं कुमारपाल राजा के धर्मोपदेशक होने के कारण ऐतिहासिक लेखकों ने आचार्य हेमचंद्र के जीवन चरित्र पर अपना अभिमत प्रकट किया है।
आचार्य हेमचंद्रका जन्म गुजरातमें अहमदाबाद से १०० किलोमिटर दूर दक्षिण-पश्र्विम स्थित धंधुका नगरमें विक्रम सवंत ११४५के कार्तिकी पुर्णिमा की रात्रि में हुआ था। मातापिता शिवपार्वती उपासक मोढ वंशीय वैश्य थे। पिताका नाम चाचिंग अथवा चाच और माताका नाम पाहिणी देवी था। बालकका नाम चांगदेव रखा। माता पाहिणी ओर मामा नेमिनाथ दोनों ही जैन थे। आचार्य हेमचंद्र बहुत बड़े आचार्य थे अतः उनकी माताको उच्चासन मिलता था। सम्भव है, माताने बाद में जैन धर्मकी दीक्षा ले ली हो। बालक चांगदेव जब गर्भ में था तब माताने आर्श्र्वजनक स्वप्न देखे थे। ईसपर आचार्य देवचंद्र गुरुने स्वप्नका विश्लेषण करते कहा सुलक्षण सम्पन्न पुत्र होगा जो दीक्षा लेगा। जैन सिद्धांतका सर्वत्र प्रचार प्रसार करेगा।
बाल्यकालसे चांगदेव दीक्षाके लिये दढ था। खम्भांत में जैन संघकी अनुमतिसे उदयन मंत्रीके सहयोगसे नव वर्षकी आयुमें दीक्षा संस्कार विक्रम सवंत ११५४में माघ शुक्ल चतुर्दशी शनिवारको हुआ। और उनका नाम सोमचंद्र रखा गया। शरीर सुवर्ण समान तेजस्वी एवं चंद्रमा समान सुंदर था। ईसलिये वे हेमचंद्र कहलाये।
अल्पआयुमे शास्त्रोमें तथा व्यावहारिक ज्ञानमें निपुण हो गये। २१ वर्षकी अवस्थामें समस्त शास्त्रोकां मंथन कर ज्ञान वृद्धि की। नागपुर (नागौर, मारवाड) के धनद व्यापारीने विक्रम सवंत ११६६में सूरिपद प्रदान महोत्सव सम्पन्न किया। आचार्यने साहित्य और समाज सेवा करना आरम्भ किया। प्रभावकचरित अनुसार माता पाहिणी देवीने जैन धर्मकी दीक्षा ग्रहण की। अभयदेवसूरिके शिष्य प्रकांड गुरुश्री देवचंद्रसूरि हेमचंद्रके दीक्षागुरु, शिक्षागुरु या विद्यागुरु थे।
वृद्वावस्थामें हेमचंद्रसूरीको को लूता रोग लग गया। अष्टांगयोगाभ्यास द्वारा उन्होंने रोग नष्ट किया। ८४ वर्षकी अवस्थामें अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया आरम्भ की। विक्रम सवंत १२२९मे महापंडितोकी प्रथम पक्ड्तिके पंडितने दैहिक लीला समाप्त की। समाधिस्थल शत्रुज्जंय महातीर्थ पहाड स्थित है। प्रभावकचरितके अनुसार राजा कुमारपालको आचार्यका वियोग असह्य रहा और छः मास पश्चात स्वर्ग सिधार गया।
हेमचंद्र अद्वितीय विद्वान थे। साहित्यके सम्पूर्ण इतिहासमें किसी दुसरे ग्रंथकारकी इतनी अधिक और विविध विषयोंकी रचनाएं उपलब्ध नहीं है। व्याकरण शास्त्रके ईतिहासमें हेमचंद्रका नाम सुवर्णाक्षरोंसे लिखा जाता है। संस्कृत शब्दानुशासनके अन्तिम रचयिता है। इनके साथ उत्तरभारतमें संस्कृतके उत्कृष्ट मौलिक ग्रंथोका रचनाकाल समाप्त हो जाता है।
गुजराती कविता है, 'हेम प्रदीप प्रगटावी सरस्वतीनो सार्थक्य कीधुं निज नामनुं सिद्धराजे'। अर्थात सिद्धराजने सरस्वतीका हेम प्रदीप जलाकर (सुवर्ण दीपक अथवा हेमचंद्र) अपना 'सिद्ध'नाम सार्थक कर दिया। हेमचंद्रका कहना था स्वतंत्र आत्माके आश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष है
हेमचंद्रके काव्य-ग्रंथ
आचार्य हेमचंद्रने अनेक विषयोंपर विविध प्रकारके काव्य रचे है। अश्वघोषके समान हेमचंद्र सोद्देष्य काव्य रचनामें विश्वास रखते थे। इनका काव्य 'काव्यमानन्दाय' न होकर 'काव्यम् धर्मप्रचारय' है। अश्वघोष और कालिदासके सहज एवं सरल शैली जैसी शैली नहीं थी किन्तु उनकी कविताओमें ह्रदय और मस्तिष्कका अपूर्व मिश्रण था। आचार्य हेमचंद्रके काव्यमें संस्कृत बृहत्त्रयीके पाण्डित्यपूर्ण चमत्कृत शैली है, भट्ठिके अनुसार व्याकरणका विवेचन, अश्वघोषके अनुसार धर्मप्रचार एवं कलहणके अनुसार इतिहास है। आचार्य हेमचंद्रका पण्डित कवियोंमें मूर्धन्य स्थान है। 'त्रिषष्ढिशलाकापुरुश चरित' एक पुराण काव्य है। संस्कृतस्तोत्र साहित्यमें 'वीतरागस्तोत्र' का महत्वपूर्ण स्थान है। व्याकरण, इतिहास और काव्यका तीनोंका वाहक द्ववाश्रय काव्य अपूर्व है। इस धर्माचार्यको साहित्य-सम्राट कहनेमें अत्युक्ति नहीं है।
व्याकरण ग्रंथ
पाणिनीने संस्कृत व्याकरणमें शाकटायन, शौनक, स्फोटायन, आपिशलि का उल्लेख किया। पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में शोधन कात्यायन और भाष्यकर पतञ्जलि किया। पुनरुद्वार भोजदेवके 'सरस्वती कंठाभरण' में हुआ।
हेमचंद्रकी व्याकरण रचनाएं
आचार्य हेमचंद्रने समस्त व्याकरण वांड्मयका अनुशीलन कर 'शब्दानुशासन' एवं अन्य व्याकरण ग्रंथोकी रचना की। पूर्ववतो आचार्योंके ग्रंथोका सम्यक अध्ययन कर सर्वांड्ग परिपूर्ण उपयोगी एवं सरल व्याकरणकी ‍रचना कर संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओंको पूर्णतया अनुशासित किया है।
हेमचंद्रने 'सिद्वहेम' नामक नूतन पंचांग व्याकरण तैयार किया। इस व्याकरण ग्रंथका श्वेतछत्र सुषोभीत दो चामरके साथ चल समारोह हाथी पर निकाला गया। ३०० लेखकोंने ३०० प्रतियाँ 'शब्दानुशासन'की लिखकर भिन्न-भिन्न धर्माध्यक्षोंको भेट देने के अतिरिक्त देश-विदेश, ईरान, सीलोन, नेपाल भेजी गयी। २० प्रतियाँ काश्मीरके सरस्वती भाण्डारमें पहुंची। ज्ञानपंचमी (कार्तिक सुदि पंचमी) के दिन परीक्षा ली जाती थी।
आचार्य हेमचंद्र संस्कृत के अन्तिम महावैयाकरण थे। अपभ्रंश साहित्यकी प्राचीन समृद्वि के सम्बधमें विद्वान उन पधोंके स्तोत्रकी खोजमें लग गये। १८००० श्लोक प्रमाण बृहदवृत्ति पर भाष्य कतिचिद दुर्गापदख्या व्याख्या लिखी गयी। इस भाष्यकी हस्त लिखित प्रति बर्लिन में है।
अलंकार ग्रंथ
हेमचंद्रके अलंकार ग्रंथ
काव्यानुशासन ने उन्हें उच्चकोटि के काव्यशास्त्रकारों की श्रेणी में प्रतिष्ठित किया। पूर्वाचार्यो से बहुत कछ लेकर परवर्ती विचारकों को चिंतन के लिए विपुल सामग्री प्रदान की। काव्यानुशासन का - सूत्र, व्याख्या और सोदाहरण वृत्ति ऐसे तीन प्रमुख भाग है। सूत्रो की व्याख्या करने वाली व्याख्या 'अलंकारचूडामणि' नाम प्रचलित है। और स्पष्ट करने के लिए 'विवेक' नामक वृति लिखी गयी।
'काव्यानुशासन' ८ अध्यायों में विभाजित २०८ सूत्रो में काव्यशास्त्र के सारे विषयों का प्रतिपादन किया गया है। 'अलंकारचूडामणि' में ८०७ उदाहरण प्रस्तुत है तथा 'विवेक'में ८२५ उदाहरण प्रस्तुत है। ५० कवियों के तथा ८१ ग्रंथो के नामोका उल्लेख है।
'काव्यानुशासन' का विवेचन : सम्पूर्ण एवमं सर्वोत्कृष्ठ पाठ्यपुस्तक
काव्यानुशासन प्रायः संग्रह ग्रंथ है। राजशेखरके 'काव्यमीमांसा', मम्मटके 'काव्यप्रकाश', आनंदवर्धन के 'ध्वन्यालोक', अभिनव गुप्तके 'लोचन' से पर्याप्त मात्रामें सामग्री ग्रहण की है।
मौलिकता के विषयमें हेमचंद्रका अपना स्वतंत्र मत है। हेमचंद्र मतसे कोई भी ग्रंथकार नयी चीज नहीं लिखता। यद्यपि मम्मटका 'काव्यप्रकाश' के साथ हेमचंद्रका 'काव्यानुशासन' का बहुत साम्य है। पर्याप्त स्थानों पर हेमचंद्राचार्यने मम्मटका विरोध किया है। हेमचंद्राचार्यके अनुसार आनंद, यश एव कान्तातुल्य उपदेश ही काव्यके प्रयोजन हो सकते हैं तथा अर्थलाभ, व्यवहार ज्ञान एवं अनिष्ट निवृत्ति हेमचंद्रके मतानुसार काव्यके प्रयोजन नहीं है।
'काव्यानुशासन से काव्यशास्र के पाठकों कों समजने में सुलभता, सुगमता होती है। मम्मटका 'काव्यप्रकाश' विस्तृत है, सुव्यवस्थित है, सुगम नहीं है। अगणित टीकाएं होने पर भी मम्मटका 'काव्यप्रकाश' दुर्गम रह जाता है। 'काव्यानुशासन' में इस दुर्गमता को 'अलंकारचुडामणि' एवं 'विवेक' के द्वारा सुगमता में परिणत किया गया है।
'काव्यानुशासन' में स्पष्ट लिखते हैं कि वे अपना मत निर्धारण अभिनवगुप्त एवं भरत के आधार पर कर रहे हैं। सचमुच अन्य ग्रंथो-ग्रंथकारो के उद्वरण प्रस्तुत करते हेमचंद्र अपना स्वयं का स्वतंत्र मत, शैली, दष्टिकोणसे मौलिक है। ग्रंथ एवं ग्रंथकारों के नाम से संस्कृत-साहित्य, इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। सभी स्तर के पाठक के लिए सर्वोत्कृष्ठ पाठ्यपुस्तक है। विशेष ज्ञानवृद्वि का अवसर दिया है। अतः आचार्य हेमचंद्र के 'काव्यानुशासन' का अध्ययन करने के पश्चात फिर दुसरा ग्रंथ पढने की जरुरत नहीं रहती। सम्पूर्ण काव्य-शास्त्र पर सुव्यवस्थित तथा सुरचित प्रबंध है।
कोशग्रंथ
संस्कृत में अनेक कोशों की रचना के साथ साथ प्राकृत—अपभ्रंश—कोश भी (देशीनाममाला) उन्होंने संपादित किया। अभिधानचिंतामणि (या 'अभिधानचिंतामणिनाममाला' इनका प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। छह कांडों के इस कोश का प्रथम कांड केवल जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबंद्ध है। देव, मर्त्य, भूमि या तिर्यक, नारक और सामान्य—शेष पाँच कांड हैं। 'लिंगानुशासन' पृथक् ग्रंथ ही है। 'अभिधानचिंतामणि' पर उनकी स्वविरचित 'यशोविजय' टीका है—जिसके अतिरिक्त, व्युत्पत्तिरत्नाकर' (देवसागकरणि) और 'सारोद्धार' (वल्लभगणि) प्रसिद्ध टीकाएँ है। इसमें नाना छंदों में १५४२ श्लोक है। दूसरा कोश 'अनेकार्थसंग्रह' (श्लो० सं० १८२९) है जो छह कांडों में है। एकाक्षर, द्वयक्षर, त्र्यक्षर आदि के क्रम से कांडयोजन है। अंत में परिशिष्टत कांड अव्ययों से संबंद्ध है। प्रत्येक कांड में दो प्रकार की शब्दक्रमयोजनाएँ हैं—(१) प्रथमाक्षरानुसारी और (२) 'अंतिमंक्षरानुसारी'। 'देशीनाममाला' प्राकृत का (और अंशतः अपभ्रंश का भी) शब्दकोश है जिसका आधार 'पाइयलच्छी' नाममाला है'।
दार्शनिक एवं धार्मिक ग्रंथ
प्रमाणमीमांसा
सामान्यतः जैन और हिन्दु धर्म में कोई विशेष अंतर नहीं है। जैन धर्म वैदिक कर्म - काण्ड के प्रतीबंध एवं उस के हिंसा संबंधी विधानोकों स्वीकार नहीं करता। आचार्य हेमचंद्र के दर्शन ग्रंथ 'प्रमाणमीमांसा' का विशिष्ट स्थान है। हेमचंद्र के अंतिम अपूर्ण ग्रंथ प्रमाणमीमांसा का प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी द्वारा संपादान हुआ। सूत्र शैली का ग्रंथ कणाद या अक्षपाद के समान है। दुर्भाग्य से इस समय तक १०० सूत्र ही उपलब्ध है। संभवतः वृद्वावस्था में इस ग्रंथ को पूर्ण नहीं कर सके अथवा शेष भाग काल कवलित होने का कलंक शिष्यों को लगा। हेमचंद्र के अनुसार प्रमाण दो ही है। प्रत्यक्ष ओर परोक्ष। जो एक दुसरे से बिलकुल अलग है। स्वतंत्र आत्मा के आश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। आचार्य के ये विचार तत्वचिंतन में मौलिक है। हेमचंद्र ने तर्क शास्त्रमें कथा का एक वादात्मक रूप ही स्थिर किया। जिस में छ्ल आदि किसी भी कपट-व्यवहार का प्रयोग वर्ज्य है। हेमचंद्र के अनुसार इंद्रियजन्म, मतिज्ञान और परमार्थिक केवलज्ञान में सत्य की मात्रा में अंतर है, योग्यता अथवा गुण में नहीं। प्रमाणमीमांसा से संपूर्ण भारतीय दर्शन शास्त्र के गौरव में वृद्वि हुई।
योगशास्त्र
ईसकी शैली पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार ही है। किंतु विषय और वर्णन क्रम में मौलिकता एवं भिन्नता है। योगशास्त्र नीति विषयक उपदेशात्मक काव्य की कोटि में आता है। योगशास्त्र जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथ है। वह अध्यात्मोपनिषद् है। इसके अंतर्गत मदिरा दोष, मांस दोष, नवनीत भक्षण दोष, मधु दोष, उदुम्बर दोष, रात्रि भोजन दोष का वर्णन है। अंतिम १२ वें प्रकाश के प्रारम्भ में श्रुत समुद्र और गुरु के मुखसे जो कुछ मैं ने जाना है उसका वर्णन कर चुका हुं, अब निर्मल अनुभव सिद्व तत्वको प्रकाशित करता हुं ऐसा निदेश कर के विक्षिप्त, यातायात, इन चित-भेंदो के स्वरुपका कथन करते बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरुप कहा गया है।
* सदाचार ही ईश्र्वर प्रणिधान नियम है।
* निर्मल चित ही मनुष्य का धर्म है।
* संवेदन ही मोक्ष है जिसके सामने सुख कुछ नहीं है ऐसा प्रतीत होता है।
संवेदन के लिये पातच्जल योगसूत्र तथा हेमचंद्र योगशास्त्र में पर्याप्त साम्य है। योग से शरीर और मन शुद्व होता है। योग का अर्थ चित्रवृतिका निरोध। मन को सबल बनाने के लिये शरीर सबल बनाना अत्यावश्यक है। योगसूत्र और योगशास्त्र में अत्यंत सात्विक आहार की उपादेयता बतलाकर अभक्ष्य भक्षणका निषेध किया गया है। आचार्य हेमचंद्र सब से प्रथम 'नमो अरि हन्ताणं' से राग -द्वेषादि आन्तरिक शत्रुओं का नाश करने वाले को नमस्कार कहा है। योगसूत्र तथा योगशास्त्र पास-पास है। संसार के सभी वाद, संप्रदाय, मत, द्दष्टिराग के परिणाम है। द्दष्टिराग के कारण अशांति और दु:ख है। अतः विश्वशांति के लिये, द्दष्टिराग उच्छेदन के लिये हेमचंद्रका योगशास्त्र आज भी अत्यंत उपादेय ग्रंथ है।
भारतीय साहित्यको हेमचंद्रकी देन
संस्कृत सहित्यका आरंभ सुदूर वैदिक काल से होता है। जैन साहित्य अधिकांशत: प्राकृत में था। 'चतुर्धपूर्व' और 'एकादश अंग' ग्रंथ संस्कृत में थे। ये पूर्व ग्रंथ लुप्त हो गये। जैन धर्म श्रमण प्रधान है। आचरण प्रमुख है।
अन्य साहित्य
संस्कृत में उमास्वाति का 'तत्वार्थाधिगमसूत्र', सिद्धसेन दिवाकर का 'न्यायावतार', नेमिचंद्र का 'द्रव्यसंग्रह', मल्लिसेन की 'स्याद्धादमंजरी', प्रभाचंद्र का 'प्रमेय कमलमातंड', आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ है।
उमास्वाति से जैन देह में दर्शानात्मा ने प्रवेश किया। कुछ ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित हुई जो आगे कुंदकुंद, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानंद, हरिभद्र, यशोविजय, आदि रूप में विकशीत होती गयी।
साहित्य में आचार्य हेमचंद्र के योगशास्त्र का स्थान
हेमचंद्र ने अपने योगशास्त्र से सभी को गृहस्थ जीवन में आत्मसाधना की प्रेरणा दी। पुरुषार्थ से दूर रहने वाले को पुरुषार्थ की प्रेरणा दी। इनका मूल मंत्र स्वावलंबन है। वीर और द्दृढ चित पुरुषोंके लिये उनका धर्म है।
हेमचंद्राचार्य के ग्रंथो ने संस्कृत एवं धार्मिक साहित्य में भक्ति के साथ श्रवण धर्म तथा साधना युक्त आचार धर्म का प्रचार किया। समाज में से निद्रालस्य को भगाकर जाग्रति उत्पन्न की। सात्विक जीवन से दीर्घायु पाने के उपाय बताये। सदाचार से आदर्श नागरिक निर्माणकर समाज को सुव्यवस्थित करनेमें आचर्य हेमचंद्र ने अपूर्व योगदान किया।
आचार्य हेमचंद्रने तर्कशुद्ध, तर्कसिद्ध एवम भक्तियुक्त सरस वाणी के द्वारा ज्ञान चेतना का विकास किया और परमोच्च चोटी पर पहुंचा दिया। पुरानी जडता को जडमूल से उखाड फेंक दिया। आत्मविश्वास का संचार किया। आचार्य के ग्रंथो के कारण जैन धर्म गुजरात में द्दृढमूल हुआ। भारत में सर्वत्र, विशेषतः मध्य प्रदेश में जैन धर्म के प्रचार एवं प्रसार में उन के ग्रंथोने अभूतपूर्व योगदान किया। इस द्दृष्टि से जैन धर्म के साहित्य में आचार्य हेमचंद्र के ग्रंथो का स्थान अमूल्य है।
हेम प्रशस्ति
सदा ह्रदि वहेम श्री हेमसूरे: सरस्वतीम।
सुवत्या शब्दारत्नानि ताम्रपर्णा जितायया ॥
ज्ञान के अगाध सागर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र को पार पाना अत्यंत दुष्कर है। जिज्ञासु को कार्य करने में थोडी सी प्रेरणा मिलने पर सब अपने आपको कृतार्थ समजेगें। (सोमेश्वर भट्ट की 'कीर्ति कौमिदी' में)
हेमचंद्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि थे। राजाकुमारपालके सामने किसी मत्सरीने कहा 'जैन प्रत्यक्ष देव सूर्यको नहीं मानते', ईस पर हेमचंद्रने उत्तर दिया। जैन साधु ही सूर्यनारायणको अपने ह्र्दयमें रखते हैं। सुर्यास्त होते ही जैन साधु अन्नजल त्याग देते हैं। और ऐसा कौन करता है?
गणितज्ञ के रूप में हेमचन्द्र सूरी
आचार्य हेमचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हेमचन्द्र सूरी (१०८९-११७२) भारतीय गणितज्ञ तथा जैन विद्वान थे। इन्होने हेमचन्द्र श्रेणी का लिखित उल्लेख किया था जिसे बाद में फिबोनाची श्रेणी के नाम से जाना गया।

मंगलवार, 24 सितंबर 2019

Devikot jain mandir pratishtha song

20. देवीकोटनगर मंडन
श्री ऋषभ जिनेन्द्र स्तवन 
(सोजितरो सिरदार दामांरो लोभीयो, ए देशी) 
ऋषभ जिनेश्वर देव नमुं त्रिभुवन धणी हो लाल, नमुं त्रिभुवन धणी हो लाल। 
नाभि नरेश्वर नंदन उदयो दिनमणि हो लाल, के उदयो.।। 
श्री मरुदेवा मात सुतन गुण आगरु हो लाल, सुतन गुण.। 
सोवनवण शरीर सदा सुख सागरु हो लाल, सदा सुख.।।1।। 
वृषभ लांछन प्रभु पाय विराजे सुंदरु हो लाल, विराजो। 
पांचसे धनुष प्रमाण शरीर सुहकरु हो लाल, शरीर.।। 
युगला धर्म निवारक तारक जगतनो हो लाल, तारक.। 
उत्तम धर्म प्रकाशक नाशक दुरित नो हो लाल, नाशक.।।2।। 
लोक उचित व्यवहार सकल वरताय ने हो लाल, सकल.। 
मुक्ति मंदिर प्रभु पहोता कर्म खपायने हो लाल, कर्म.।। 
प्रभु मूर्ति सुखकार विराजे जगत में हो लाल, विराजे.। 
ते देखी बहु भव्य मिथ्यामति गमें हो लाल, मिथ्या.।।3।। 
जिनप्रतिमा जिन सारखी भाखी सूत्र में हो लाल, भाखी.। 
तेहने सेवत भविजन भव में नहीं भमे हो लाल, भव में.।। 
देवीकोट नगर श्रीसंघे जुक्तिशुं हो लाल, श्रीसंघे.। 
बिंब भराया चैत्य कराया भक्तिशुं हो लाल, कराया.।।4।। 
गच्छनायक जिनचंद पटोधर दीपता हो लाल, पटोधर.। 
श्रीजिनहर्ष सूरींद कुमति मत जीपता हो लाल, कुमति.।। 
वरस अढारे साठे शुदि वैशाख में हो लाल, शुदि.। 
करीय प्रतिष्ठा सातम दिन उच्छरंग में हो लाल, दिन.।।5।। 
मूलनायक श्री ऋषभ जिनेश्वर स्थापिया हो लाल, जिनेश्वर.। 
संघ सकल घर हर्ष महोत्सव व्यापिया हो लाल, महोत्सव.।। 
वरत्या जय जयकार घरोघर अति घणा हो लाल, घरोघर.। 
दूर टल्या दु:ख दंद सकल श्रीसंघ तणा हो लाल, सकल.।।6।। 
प्रभु गुण गातां आतम निर्मल संपजे हो लाल, निर्मल.। 
ध्यातां हृदय मझार के निज कारज सरे हो लाल, निज.।। 
वाचक अमृत धर्म पसाये इम भणे हो लाल, पसाये.। 
शिष्य क्षमाकल्याण सुपाठक शुभ मने हो लाल, सुपाठक.।।7।।
(खरतरगच्छ साहित्य कोश क्रमांक-3526)
क्षमाकल्याण जी कृति संग्रह भाग 1 से साभार

Upadhyay Sadhu kirti ji rachit जिनकुशलसूरि छन्द

उपाध्याय साधुकीर्ति रचित
जिनकुशलसूरि छन्द 
विलसै ऋद्धि समृद्धि मिली, शुभ योगे पुण्य दशा सफली । 
जिनकुशलसूरि गुरु अतुल बली, मनवांछित आपे दादो रंग रली ।।१।। 
मंगल लील समै विपुला, नवनवा महोच्छव राज्य कला | 
सुपसायै गुरु चढती कला, सुकलीणी पुत्रवती महिला ।।२।। 
सबही दिन थायै सबला, सद्वास कपूर तणा कुरला । 
हय गय रथ पायक बहुला, कल्लोल करे मन्दिर कमला ||३|| 
वीझै चमर निशान घूरे, नर वे दरबार खड़ा पहुरे । 
जय जय कर जोड़ी उचरे, सानिद्ध गुरु सब काज सरे ||४|| 
सरसा भोजन पान सदा, दु:ख रोग दुकाल न होय कदा । 
अविचल उल्लट अंग मुदा, गुरु कूरम दृष्टि प्रसन्न सदा ।।५।।
घम घम मद्दल नाद घुमे, बत्तीसे नाटक रंग रमे । 
प्रगट्यो पुण्य प्रताप हमें, सबला अरियण ते आय नमें ।।६।। 
तन सुख मन सुख चीर तणे, पहिरे बेला उर होय रणे । 
ध्यावो कुशल गुरु एक मनै, जृंंभक सुर मन्दिर भरय धनै ।।७।। 
ततखिन धन खंच्यो आवे, करी श्याम घटा मेह वरसावे ।
तिसियां तोय तुरत पावे, जलदाता त्रिजग सुजस गावै ||८|| 
लहर्या जल कल्लोल करे, प्रवहण भव सायर मज्झ डरे । 
वूडन्ता वाहन जे समरे, ते आपद निश्चय थी उबरे ।।९।। 
खड़ खड़ खड़ग प्रहार वहै, सौदामिनी जिम समशेर सहै । 
कुशल कुशल गुरु नाम कहै, ते क्षेम कुशल रण मज्झ लहै ।।१०।। 
थुंभ सकल परचा पूरे, श्री नागपुरे संकट चूरे । 
मंगलोरे अधिके नूरे, देराउर भय टाले दूरे ।।११।। 
वीरमपुर वाने सुधरे, खंभायतपुर विक्रम नयरे । 
जिनचन्द्र सूरि पाटे पवरे, जसु कीरति मही मंडल पसरे ।।१२।। 
पूरव पश्चिम दक्षिण आगे, उत्तर गुरु दीपे सोभागे । 
दह दिशि जन सेवा मांगे, श्री खरतर गच्छ नी महिमा जागे ।।१३।। 
पुर पट्टन जनपद ठामे, गाईजे कुशल नयर गामे । 
पूजे जे नर हित कामे, ते चक्रवर्ति पदवी पामे ||१४|| 
श्री जिनकुशल सूरि शाखै, सेवक जन ने सुखिया राखै । 
समर्या गुरु दरसण दाखै, श्री 'साधुकीर्ति' पाठक भाखै ।।१५।।